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कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद-युवा पीढ़ी के प्रणेता

चुभन पॉडकास्ट
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स्वामी विवेकानंद जी के जीवन का उद्देश्य अपने गुरु श्री रामकृष्ण की अनुभूतियों के परिप्रेक्ष्य में वेदांत के भव्य सन्देश का प्रचार करना ही था।इसके साथ ही प्राचीन परम्पराओं और अन्तर्निहित प्रतिभाओं के अनुरूप अपनी मातृभूमि को पुनः सशक्त करना भी स्वामी जी का ध्येय था।इस सन्दर्भ में अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को लगाकर चालीस वर्ष की आयु पूर्ण करने से पूर्व, 4 जुलाई 1902 को वे इस संसार से चल बसे।

स्वामी विवेकानंदजी ने चार योगों के बारे में तथा अपने लेखों,पत्रों,संभाषणों और काव्य-कृतियों आदि के रूप में भावी पीढ़ियों के लिए अमूल्य धरोहर छोड़ी है।इस शताब्दी के आरम्भ में देश-भक्त राष्ट्रीय नेताओं द्वारा प्रभावित होने की बात को देखकर भारत सरकार ने सम्पूर्ण देश में उनके जन्म दिन 12 जनवरी को प्रति वर्ष ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाये जाने के आदेश दिए।इस सन्दर्भ में भारत सरकार द्वारा 1984 में घोषित आदेश कहता है “इस बात को महसूस किया गया कि स्वामी जी के सिद्धांत और वह आदर्श,जिनके लिए वे जिए और काम किया,भारतीय युवकों के लिए महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत बन सकते हैं।”

स्वामी जी मूलतः एक ओजस्वी पुरुष थे,जिन्होंने सर्वोच्च सत्य का ज्ञान प्राप्त किया था।यह उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का एक प्रमुख पहलू था।इसके अतिरिक्त वे एक देश-भक्त (साधारण देश-भक्तों से भिन्न) सन्यासी थे।वे नितांत अलग ही प्रकार के समाज-सुधारक थे।वे दैवी शक्ति से अनुप्राणित वक्ता थे एवं अलौकिक गुणों से अभिभूत संस्कृत,बांग्ला और अंग्रेजी कविताओं के प्रणेता थे।इन सबके अतिरिक्त सुरीले कंठ के कारण अपने गुरु के कृपा-भाजन भी थे।

अब चुभता हुआ प्रश्न मेरा यह है कि ऐसे दिव्य पुरुष के जन्मदिन या पुण्यतिथि को जिस तरीके से हम मना लेते हैं क्या वह संतोषजनक है?12 जनवरी को विभिन्न संस्थाओं में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ मना लिया जाता है लेकिन क्या वास्तव में इस देश के युवा उस महान चरित्र से लेशमात्र भी जुड़ पाते हैं?उनके बताए मार्ग पर यदि कुछ कदम भी चल लिया जाए तो सफलता ज़रूर प्राप्त हो और जीवन भी सार्थक हो जाए लेकिन क्या हम कुछ कदम तो दूर एक पग भी उस राह में आगे बढ़ाते हैं?जवाब शायद हर ओर से ‘न’ ही आना चाहिए।वह अलग बात है कि हम झूठे आदर्श और पाखंड कितना भी कर लें।आज की युवा पीढ़ी कहाँ जा रही है यह मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है और ज़्यादातर सारा दोष आज की पीढ़ी पर ही मढ़ दिया जाता है लेकिन आज मैं अपने लेख के माध्यम से हर ज़िम्मेदार व्यक्ति से पूछना चाहती हूँ कि हम क्या योगदान दे रहे हैं आज की युवा पीढ़ी के चरित्र निर्माण में?कहते हैं परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला है और इस पाठशाला में मिला ज्ञान और संस्कार उसके पूरे जीवन काम आते हैं लेकिन आज परिवारों में क्या मिल रहा है?संस्कार के नाम पर हम अपने माता-पिता को ही पूछने में असमर्थ हैं तो हमारे बच्चे भी हमसे वही सीख रहे हैं लेकिन कष्ट तब होता है जब लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।अपने माता-पिता से दो शब्द प्रेम के बोलने भी भारी होते हैं लेकिन दूसरों को उपदेश वही लोग ऐसे देते हैं जैसे उनसे अधिक श्रवण कुमार कोई और हो ही न।परिवार के अलावा समाज में भी क्या सिखाया जा रहा है और सबसे बड़ी बात चरित्र-निर्माण की दिशा में कुछ भी नहीं हो रहा।इस सबमें हम सभी ज़िम्मेदार हैं।स्कूल-कॉलेज के अध्यापक क्या शिक्षा दे पा रहे हैं?यह वे स्वयं के अन्दर झांककर देखें।हर बात को ऐसे टाला जाता है जैसे कोई सर से बला टाल रहा हो।हर तरफ अपनी ज़िम्मेदारियों से भागने की धुन ही सुनाई देती है।पठन-पाठन और लेखन भी अपने यश और अर्थ प्राप्ति के लिए ही रह गया है।हम साहित्य के लोग बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि काव्य का प्रयोजन यश और धन की प्राप्ति के अलावा सामाजिक व्यवहार की शिक्षा,विपत्ति का नाश,तुरंत ही उच्च कोटि के आनंद का अनुभव कराने वाला और प्रेमिका के समान उपदेश देने के लिए है परन्तु हमें अपने अन्दर मनन करने की आवश्यकता है कि सारे प्रयोजन पीछे छोड़कर क्यों ज़्यादातर यश और धन की प्राप्ति के लिए ही लिखा जा रहा है?तभी उसका समाज पर कोई सकारात्मक सन्देश भी नहीं जा पाता है।

आज हमारे अन्दर से सेवा भावना तो एकदम लुप्त होती जा रही है।अपनों को ही पूछने में हम समर्थ नहीं रह गये तो समाज की क्या सेवा करेंगे?तभी आज कोई निःस्वार्थ भाव से जब किसी को पूछता है या सेवा करता है तो लोग उसे शक़ की दृष्टि से अजूबे की तरह देखते हैं।रामकृष्ण मिशन एक विश्वव्यापी संस्था है जो जीवन के तीन प्रमुख क्षेत्रों-आध्यात्मवाद,शिक्षा और चिकित्सा में जनता की सेवा का उल्लेखनीय कार्य कर रही है।सहस्त्रों युवक और युवतियां एवं गेरुआ वस्त्रधारी सन्यासी इस काम में जुटे हुए हैं।संसार के हर बड़े शहर में इसके आश्रम,विद्यालय और चिकित्सालय हैं।इस संस्था के संस्थापक स्वामी विवेकानंद थे।उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम पर इस संस्था की स्थापना की थी।इस कार्य के लिए उन्होंने देश भर में दौरे किये।देश की घोर गरीबी,जनता की निरक्षरता और उसमें फैले हुए अनेकों विनाशक रीति-रिवाज़ों का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।वे उच्च कोटि के सन्यासी थे,वेद-शास्त्रों के महान ज्ञाता थे,वेदांत के प्रकांड पंडित थे और इसी क्षेत्र में उन्होंने संसार भर में सर्वोत्कृष्ट स्थान प्राप्त किया था।शिकागो की धर्म सभा में कैसे उन्हें भाषण देने का अवसर मिला,कैसे उनके भाषण से श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये और संसार भर में उनकी विद्वता की धाक जम गई,जगह-जगह उनको बुलाया जाता और सम्मान दिया जाता तथा भाषण कराये जाते?कैसे भारत लौटने पर जनता ने उनका इतना सम्मान किया कि राजा तक उनके रथ को खींचने में अपना गौरव समझने लगे?वे चाहते तो किसी ऊँची धार्मिक गद्दी पर बैठकर ठाठ करते और भोली-भाली जनता द्वारा अपनी पूजा करवा सकते थे,किन्तु उनकी आत्मा तो देश की गरीबी,निरक्षरता व रूढ़िवादिता को देखकर इतनी व्यथित थी कि वे दीन-दुखियों की सच्ची सेवा को ईश्वर भक्ति से भी अधिक मानने लगे थे।वे बेचैन थे कि उनके देश से यह बुराइयाँ कैसे दूर हों?

यह सामान्य काम नही था।इतना बड़ा देश, निकम्मेपन में डूबी हुई अनपढ़ नासमझ जनता,धर्म के नाम पर ढोंग और ठगी का बोलबाला,स्त्रियों की दयनीय दशा,लाखों महिलाओं की अवर्णनीय यातना और पूर्ण बंधक का जीवन,निर्धन देश में खर्चीले विवाह और मृतक भोज आदि रूढ़िवादी रीति-रिवाज़-इन सबको उखाड़ फेंकने का ढृढ़ संकल्प इस महान आत्मा ने कर लिया।सोती हुई जनता को झकझोरा,आराम का जीवन बिताने वाले धनी लोगों को लताड़ा,उनके समाज-शोषक तरीकों के लिए उनकी खुल के भर्त्सना की।हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक,काठियावाड़ से लेकर असम तक पैदल घूम-घूम कर जनजागरण किया,परन्तु उनकी व्यग्र और व्यथित आत्मा को शांति नहीं मिली।पैदल चलना और जगह-जगह ओजस्वी भाषण देना यह असाधारण कार्य थे जिसे इस बाल ब्रह्मचारी ने निष्ठा से किया।उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा लेकिन इस महान आत्मा ने उसकी भी चिंता नही की।मिशन स्थापना का कार्य इस देश में ही नहीं वरन विदेशों में भी ज़ोर से चलाया गया।स्वामी जी कभी स्वदेश का दौरा करते तो कभी विदेश का।संसार से कैसे गरीबी मिटे,कैसे बिमारियों से पीछा छूटे,कैसे रूढ़िवादिता दूर हो,यही उनका दिन-रात का मिशन था।इसी में अपने अंतिम समय तक लगे रहे और अपने मिशन को पूरा होता देख गये।इसलिए अपने अंतिम समय में उनके यह शब्द थे-

“कोई बात नहीं।मैंने डेढ़ हज़ार वर्ष के लिए पर्याप्त काम कर दिया है।”

आज सारा संसार स्वामी विवेकानंद का बड़ी श्रद्धा से नाम लेता है।कृष्णजी के बाद कर्मयोग में पक्की आस्था रखने वाले और कर्मयोग का क्रियात्मक पाठ पढ़ाने वाले महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद का नाम अग्रणी है।अब ऐसे कर्मयोगी को याद करने के साथ हम इतना प्रण तो लें ही कि हम भी उनकी तरह कर्म को प्रधानता दें।न सही कर्मयोगी-कम से कम कर्म करते हुए जीवन बिताएं और कर्म करते हुए ही अपनी अंतिम श्वांस लें।

3 thoughts on “कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद-युवा पीढ़ी के प्रणेता

  1. उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाये

    1. बिल्कुल ठीक।आज के युवाओं की यही सोच और विचारधारा होनी चाहिए।

  2. विश्व समाज को शांति व सद्भावना का पाठ पढ़ाने वाले स्वामी विवेकानन्द जी के सिद्धान्त आज भी अनुकरणीय हैं, जिनसे युवाओं को सदैव सन्मार्ग पर चलने की सीख मिलती है।

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