हम सभी के साथ ऐसा कभी न कभी तो अवश्य ही होता है कि जब हमें लगता है कि हम अपने दिल की बातें किसी के साथ साझा करें लेकिन अक्सर उचित पात्र न होने के कारण हमारे दिल की बातें दिल में ही रह जाती हैं।इधर कई महीनों से मैं सोच रही थी कि ब्लॉग के माध्यम से अपने दिल की बात अपने लोगों के समक्ष रखूं लेकिन क्या सुखद संयोग है कि आज के इतने पवित्र दिन जब हम सभी गणतंत्र दिवस को पूरे सम्मान और प्रसन्नता से मना रहे हैं और उसी दिन मुझे आप सबसे रूबरू होने का अवसर मिला।सबसे पहले सभी को 70वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
मैं इतनी ऊहापोह की स्थिति में हूँ कि आज के दिन जब ब्लॉग द्वारा मैं अपना पहला लेख पोस्ट कर रही हूँ उसपर से गणतंत्र दिवस का शुभ अवसर तो ऐसे में मै क्या लिखूं?दिल में इतने उद्गार हैं कि कोई एक विषय समझ ही नही आ रहा आपके साथ साझा करने को लेकिन आज के दिन जो एक बात मुझे सबसे ज़्यादा उचित लग रही है वह यह कि आज क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं?हम सिर्फ अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर अपने आप को गुलाम करने में लगे हुए हैं।सोच की गुलामी सबसे खतरनाक होती है।गुलामी की ज़ंजीरों से तो हम आज़ाद हो गये लेकिन विचारों की गुलामी ने हमें बेड़ियों से जकड़ा हुआ है।जब हमारे मन में यह भाव आ जाता है कि “कोउ नृप होए हमें का हानि” तो देश का पतन निश्चित है और प्रजातन्त्र में तो यह भाव बिल्कुल ही विनाशकारी है।हमें देश,समाज,अपने परिवार और यहाँ तक कि पूरे विश्व में क्या चल रहा है और क्यों ऐसा हो रहा है और इसका क्या समाधान है इन सब बातों से खुद को जोड़ना होगा।हमारे तर्क होते हैं कि हम तो अपनी रोजी रोटी में ही व्यस्त रहते हैं, इतना समय ही नही है हमारे पास ऐसी बातों के लिए तो उसके लिए मैं यह कहना चाहूंगी कि इन बातों के लिए कोई बहुत समय देने की ज़रूरत नही बस अपनी सोच को एक दिशा देने की ज़रूरत है और इस बात से तो ज़्यादातर लोग मुझसे सहमत होंगे कि हम जिस समाज और जिन हालातों में रह रहे हैं उस तरह से रहना शायद कोई भी नही चाहता लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनती या बनाई जाती हैं कि धर्म के नाम पर,कभी जाति के नाम पर तो कभी कुछ और….ऐसे हालात बनते हैं कि जिनमें साँस लेना भी दूभर हो जाता है।देश के माहौल को ख़राब करने वाले क्या कभी यह सोच पाते हैं कि जिन पर बीतती है उनका क्या होता है ?कश्मीर से उजड़े लोगों का दर्द देखकर ज़ख्म हरे हो जाते हैं और भी न जाने कितने लोग रोज ही अपनी जड़ों से उखड़ने पर मजबूर किये जाते हैं।मेरे दादा दादी अपने छोटे छोटे बच्चों को लेकर 1947 में पाकिस्तान से भारत आए थे।उस समय विभाजन का दर्द उन्होने कैसे झेला था यह मैं अपने पिता की आँखों में आज भी इतने साल बीत जाने के बाद भी देख पाती हूँ जो कि उस समय छोटे बच्चे थे और ऐसा सदमा उनके दिल पर लगा था जो इतने समय बाद आज भी कोई ऐसी घटना देखते हैं तो सहम जाते हैं।
हमारे हिंदुस्तान में हर बच्चा दादी-नानी की कहानियाँ सुनकर ही बड़ा होता है। हमने भी दादी की गोद में कई कहानियाँ सुनी लेकिन बेचारी की हर कहानी का अंत पाकिस्तान के स्यालकोट (जहां से उन लोगों को 1947 में आना पड़ा था)से ही होता था और हर बार आँखें आंसुओं से भरी होती थीं। हम बच्चे खीझ जाते थे “क्या दादी तुम तो हर समय रोती रहती हो” और अपने खेल में लग जाते थे पर जैसे जैसे मैं बड़ी होती गई यह दर्द जैसे मेरे अंदर भी समाता गया।आज मैं हर देशवासी को यह कहना चाहती हूँ कि किसी को भी घर से बेघर कर या किसी को मारकर क्या मिलता है ?
यह हम जैसे न जाने कितने लोगों का दर्द है जो प्रार्थना करता है कि ऐसे हालात ख़त्म किए जायें।जड़ से उखाड़ा जाना कितना दुखदाई है यह सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है और कितने लोगों को उनकी जड़ों से उखाड़ कर फेंका जा रहा है,क्या सीनों से दर्द मिट गया है?हमने भारत-पाक का विभाजन सहा और अपनी जड़ों से उखाड़ कर मीलों दूर बस जाने को मज़बूर हुए परंतु वह एक बहुत बड़ी दुर्घटना थी।एक देश के दो टुकड़े हो रहे थे इसलिए गलत ही सही,ऐसा माहौल बना और हमें सहना पड़ा परंतु ज़रूरत यह सोचने की है कि आज अपने देशवासी ही क्यों एक दूसरे को जड़ से उखाड़ने में लगे हैं?कश्मीरी लोग अपने देश में ही शरणार्थी का जीवन व्यतीत करने को क्यों मज़बूर हैं?हम सबकी उम्मीदें सिर्फ़ सरकार और प्रशासन से होती हैं लेकिन हम स्वयं नफरत के बारूद पर खड़े रहते हैं जो कभी भी फट जाता है और सारा दोष सरकार पर मढ़ कर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया जाता है।किसी भी टीवी चैनल पर कोई भी डिबेट हो उसमें सिवाय एक दूसरे पर इल्ज़ाम के और कुछ रचनात्मक कभी नहीं होता।किसी की मौत पर भी राजनीति,देश पर बाहरी हमला हो फ़िर भी राजनीति,सैनिकों की निष्ठां पर राजनीति।देख देख कर मन भर गया है।मैं सिर्फ़ एक बात कहना चाहती हूँ कि सिर्फ़ बातों में ही कोरा आदर्श न झाड़कर एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने का प्रयत्न होना चाहिए जो स्वदया (self pity)पर जीने वाली न हो मुझे बड़ी तकलीफ़ होती है जब लोग “हम दलित हैं हमारे साथ ऐसा हुआ, हम अल्पसंख्यक हैं हमारे साथ ऐसा हुआ हम ये हैं तो यह हुआ और हम वो हैं तो वह हुआ….” कह कह कर तरस बटोरते रहते हैं अरे खुद पर तरस खाना बंद करें।स्वदया पर जीना पाप है। मेरे दादा सब कुछ पाकिस्तान छोड़ कर कंगाल बन कर आए थे उन्होंने और हमारे ख़ानदान के कई लोगों ने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया लेकिन अभाव में जी कर भी ख़ानदान के किसी बच्चे ने आज तक freedom fighter का reservation नहीं लिया और अपनी मेहनत के बूते कोई डाक्टर कोई प्रोफ़ेसर तो कोई बड़ा व्यवसायी बना। हम आज एक ऐसा देश बनाएँ जिसका युवा अपने बूते अपनी जगह बनाए दूसरों की दया पर जीने की आदत छोड़े।
भावना जी! इस ब्लॉग का शुभारम्भ करने के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।आशा करती हूँ कि आप अपने ब्लॉग के माध्यम से अपनी ‘चुभन’को विश्वव्यापी कर के इस समाज में फैली अनैतिकता, अराजकता तथा भ्रष्टाचार को दूर करने का सार्थक प्रयास करें।क्योंकि….
सदियाँ दर सदियाँ बीत रहीं हैं
दर्द की चुभन आज भी वैसी है।
ये ‘चुभन’ ही हमारे देश की कुरीतियों को जड़ से निकल दे क्योंकि….
हर चुभन सह के महकते हैं गुलाबों की तरह
और अन्त में शुभाशीष के साथ डॉ.कुँवर बेचैन के शब्दों में….
तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर काम होगी
किसी के पाँव से कांटा निकल कर देखो….
डॉ.पूनम घई
धामपुर
सर्वप्रथम आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ और एवं बधाई शानदार शुरुआत की। आशा है हम निरंतर आपके लेखों से भविष्य में भी लाभांवित होते रहेंगे। बेहद पीड़ादायक लेख बंटवारे की चुभन को दर्शिता।