
पारंम्परिक तौर पर हम हिंदी दिवस प्रतिवर्ष मनाते हैं। सवाल यह है कि इतने वर्षों के बाद हिंदी कहां तक पंहुची है? भारतवर्ष में हिंदी की वास्तविक स्थिति क्या है? क्या हिंदी वास्तव में हमारे सांस्कृतिक मोतियों को पिरोने वाला सूत्र बन गई है? ऐसे अनेक सवाल हैं जिनके उत्तर अभी भी अज्ञात हैं। आइए आज हिंदी की विकास यात्रा पर कुछ मंथन किया जाए।
इस मंथन में हमारे साथ हैं, हिंदी की वरिष्ठ एवं श्रेष्ठ लेखिका शशी मंगल जी। आप चर्चित गद्य एवं पद्य लेखिका हैं। आपने उपन्यास, कहानी एवं काव्य सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। आपके तर्क पाठक की सोच को दिशा ज्ञान देते है। आपको पढ़ने एवं सुनने का अर्थ है, किसी भी विषय की गूढता में सरलता से उतर जाना।
आदरणीय डॉ.श्री लता सुरेश जी क्षेत्रिय भाषा एवं राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को जोड़ने वाला वह सेतु हैं जो क्षेत्रियता के अंतर को समाप्त कर देता है। आप हमारी शिक्षा व्यवस्था को हिंदी के बिना पूर्ण नहीं पातीं। इनकी लेखनी सांस्कृतिक सामंजस्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।
आदरणीय बाला वैष्णवी जी एक प्रखर वक्ता के रूप में जानी जाती हैं। आप एक शिक्षिका के रुप में हिंदी विरोध के कारण एवं निवारण में खुले विचारों के लिए प्रख्यात हैं । आपका मानना है कि व्यवसायिक एवं रोजगार विवशता हिंदी के विकास में एक प्रमुख सूत्र साबित होगा। आप राजनीतिक स्वार्थ एवं क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान के क्षीण होने के भय को हिंदी के विकास में अड़चन मानती हैं।
तो आइए सुनते हैं, तीन महान वक्ताओं को, एक दृष्टि डालते हैं हिंदी को लेकर विभिन्न दृष्टि कोण पर। इनके साथ संवाद करेंगे, लोकप्रिय कवि एवं वरिष्ठ साहित्यकार अजय आवारा जी।
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