आवारा की बातें

“कुछ बातें प्रेमचंद की”

                       – अजय यादव 

 

प्रेमचंद के जन्मोत्सव पर, आनेकों अनेक कार्यक्रम किए जाते रहे हैं, परंतु, ऐसा प्रतीत सोता है, कि हम वृहद आकाश को एक मुट्ठी में समेटने का प्रयास कर रहे हैं। हम प्रेमचंद के साहित्य पर कितने भी कार्यक्रम कर लें, पर उनके लेखन एवं व्यक्तित्व को समेटने की कोशिश करना कुछ ऐसा है, जैसे हम एक लकीर खींचना चाहते हैं पर वह एक बिंदु में ही सिमट कर रह जाती है।

मेरे विचार से, प्रेमचंद की लेखनी की समीक्षा करना, सूर्य की रोशनी को दियासलाई दिखाने जैसा है। आज, एक नजर उनके अन्य पहलू पर भी डालते हैं। प्रेमचंद सामाज के धरातल से जुड़े लेखक हैं। उन्होंने समाज के मूल को लिखा है। उन्होंने बड़ी ही कुशलता से आम आदमी को शब्दों में बांधा है। यूं लगता है जैसे उन्हें पढ़कर हम खुद को पा गए हों। शायद, प्रेमचंद को पढ़कर ही आम आदमी का स्वयं से साक्षात्कार हो जाता है। उन्होंने आम आदमी के यथार्थ रूप को शब्दों में ढाला है। उनका यह प्रयास आज भी उतना ही सार्थक नजर आता है।

भले ही समय बदल गया हो। नई नई परंपराओं ने भले ही अपनी पैठ बना ली हो परंतु, आम आदमी का दर्द आज भी, वैसे का वैसा ही है। प्रेमचंद ने इस पृष्ठभूमि पर जो उपन्यास एवं कहानियां लिखी हैं, वह सभी आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतनी ही सटीक बैठती हैं, जितनी पहले थीं। लगता है, लिबास बदल गए हैं। चेहरे बदल गए हैं और समाज एवं आम जन मानस की सोच भी बदल चुकी है परंतु प्रेमचंद जी की लेखनी में आज के आदमी का दर्द भी उतनी ही स्पष्टता से झलकता है। आम आदमी का दर्द, प्रेमचंद की लेखनी की आत्मा कही जा सकती है। ऐसा लगता है, इतने सालों के बाद भी प्रेमचंद आज भी आम आदमी में कहीं ना कहीं जिंदा हैं।

प्रेमचंद ने साहित्य के जो मानक स्थापित किए हैं, वह आज के साहित्यकारों के लिए, ना सिर्फ दिशा सूचक हैं, बल्कि आज के लेखकों के लिए एक धर्म ग्रंथ की भांति हैं। यथार्थवादी लेखक जब भी एक आम जनमानस को लिखने की कोशिश करता है, तो लगता है उनके शब्दों की ओट से प्रेमचंद झांक रहे हैं। प्रेमचंद को पढ़ना, मात्र साहित्य पढ़ना नहीं है। उन्होंने हमारे इर्द-गिर्द घूमने वाली घटनाओं को लेकर मानवता, समाज एवं आदर्शों को लेकर मानदंड स्थापित किए हैं।

आज के समाज को, उनके साहित्य से शिक्षा लेने की अत्यधिक आवश्यकता है। आज जब सामाजिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, तो साहित्यकारों एवं लेखकों का कर्तव्य बन जाता है कि वह प्रेमचंद के स्थापित मूल्यों से आज की पीढ़ी को फिर से परिचित करवाएं। प्रेमचंद के साहित्य को, कथा कहानियों तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। यह वह पोथी है, जिसमें मानवता के कर्म की ज्योति को स्पष्ट देखा जा सकता है। माना कि हम उस आसमान को नहीं छू सकते। हम वह सूरज भी नहीं बन सकते। तो क्या, हम समाज को रास्ता दिखाने के लिए, उनके ज्ञान अंबार का दिया भी नहीं बन सकते?

एक बात जो मुझे बहुत कष्ट देती है, वह यह है कि इतनी बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक को जैसा सम्मान मिलना चाहिए था, वैसा मिला नहीं।उनका यथोचित सम्मान न तो उनके जीवन काल में ही हो सका और न ही आज तक।यहां तक कि कोई अच्छा स्मारक भी उनका विद्यमान नहीं है।लखनऊ और वाराणसी ही प्रेमचंद जी की कर्मस्थली रही है और मैं ‘चुभन’ के माध्यम से श्रोताओं, रचनाकारों और आम जन से भी यह प्रश्न करना चाहूंगा कि क्या हमें इस दिशा में कुछ प्रयास करने की आवश्यकता नही है ? प्रेमचंद जी का साहित्य जन-जन के लिए ही था तो जन-जन तक जाना भी चाहिए।

प्रेमचंद जी को सच्ची श्रद्धांजलि तभी सार्थक होगी, जब हम उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को स्वयं में आत्मसात कर लेंगें। पर क्या, हम ऐसा कर पाएगें?

 

2 thoughts on “आवारा की बातें”

  1. Kamendra Devra

    प्रेमचंद जी के उपन्यासों में उठाई गई समस्याओं को आज के संदर्भ में जोड़कर देखने के लिए आवारा जी को साधुवाद।आगे भी आप ऐसे ही प्रस्तुति दें

  2. Dhairya sisodia

    एक स्वस्थ और सुंदर परिचर्चा, उस समय की बातों को आज के समय से जोड़कर बहुत ही सार्थक संवाद किया गया।

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