मानो या न मानो, विश्वास करो या न करो…..एक बार पढ़ो अवश्य
– डॉ. बी.सी.गुप्ता


मेरी बाल्यावस्था का परिचय
जन्म और परिवेश
मेरा जन्म 1930 में हुआ। उस समय भारत में अंग्रेज़ों का शासन था। मैं नॉर्थ प्रॉविंसेज़ आगरा एंड अवध, यानी आज के उत्तर प्रदेश, के एक छोटे कस्बे से हूँ। यह कस्बा बेहद साधारण था। मेरा परिवार भी वहाँ के आम परिवारों जैसा ही था। उस परिवार में एक बालक था, यानी मैं, इस ब्लॉग का लेखक। उस दौरान मेरी उम्र 7 से 10 साल के बीच थी।
स्कूल और संस्कार
मैं सनातन धर्म हाई स्कूल में पढ़ता था। यह एक हिंदी मीडियम स्कूल था। हर सुबह वेदों से ली गई संस्कृत प्रार्थना होती थी। इसके बाद 30 मिनट की ‘धर्म’ कक्षा में छात्रों से बातचीत होती थी। फिर अन्य विषयों की पढ़ाई शुरू होती थी। मैं तीसरी कक्षा में था। उस समय शिखा और टोपी पहनने की प्रथा को बढ़ावा मिलता था।
विशेष अवसरों का जादू
वसंत पंचमी जैसे खास मौकों पर कुछ अलग होता था। हमारे शिक्षक मिश्रा जी वीणा बजाते थे। वे देवी सरस्वती की प्रार्थना गाते थे। स्कूल के हॉल में स्टाफ और छात्र इकट्ठा होते थे। समय-समय पर योग और धार्मिक विषयों पर विशेषज्ञ आते थे। उनके प्रदर्शन और बातचीत रोचक होती थी। इस तरह स्कूल का माहौल शुद्ध और संस्कारों से भरा था।
माँ का प्रभाव
मेरी माँ एक साधारण गृहणी थीं। वे कम पढ़ी-लिखी थीं, लेकिन धार्मिक थीं। शाम को वे रामायण पढ़ती थीं। हमें भाई-बहनों को भी पढ़ने और सुनाने के लिए कहती थीं। हर महीने वे देर रात तक रामायण का पाठ आयोजित करती थीं। मंडली इसे गाती और समझाती थी। मेरे लिए यह किसी फिल्म से कम नहीं था। अंगद-रावण संवाद, हनुमान-रावण संवाद, लंका दहन जैसे प्रसंग मुझे लुभाते थे।
घर में भक्ति की शुरुआत
हर साल हमारे कस्बे में बड़ा मेला लगता था। दूर-दूर से व्यापारी अपनी दुकानें सजाते थे। एक बार मेरे आग्रह पर माँ ने ठाकुर जी की पीतल की मूर्ति और सिंहासन खरीदा। इसके बाद हमारे घर में भगवान की मूर्ति स्थापित हुई। एक अलमारी में उनकी पूजा और सेवा शुरू हो गई। एक दिन मैंने माँ को तुलसी की 108 दानों वाली माला फेरते देखा। उन्होंने बताया कि इससे राम जी का जाप होता है। मैं भी कभी-कभी ऐसा करने लगा।
माँ के साथ यमुना स्नान
माँ को मुझ पर भरोसा था। वे मुझे बहुत प्यार करती थीं। इसलिए, त्योहारों या व्रत के दिन वे मुझे यमुना स्नान के लिए ले जाती थीं। यह मेरे लिए खास अनुभव था।
ऐसा था हमारे घर का शुचि, सुंदर और संस्कारी वातावरण जो हमारी माँ से हमें मिला।
मेरी किशोरावस्था का ज्ञान और प्रेरणा

घर का संस्कारी माहौल
हमारे घर का माहौल शुचि और सुंदर था। यह संस्कार हमें माँ से मिले। उनके धार्मिक कार्यों ने हमें प्रभावित किया। इस तरह हमारा बचपन मूल्यों से भरा रहा।
कस्बे में ज्ञान का अभाव
मेरे कस्बे में सूचना के साधन सीमित थे। वहाँ केवल एक पब्लिक लाइब्रेरी थी। लेकिन यह सिर्फ वयस्कों के लिए थी। बच्चों को किताबें नहीं मिलती थीं। फिर भी, मुझे एक अनमोल खजाना मिला।
चाचा जी की अलमारी: ज्ञान का स्रोत
भाग्य से मुझे चाचा जी की अलमारी मिली। इसमें पुरानी ‘कल्याण’ पत्रिकाएँ थीं। ये हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के लेखों से भरी थीं। मुझे इनकी जरूरत बताने की जरूरत नहीं। मैंने जल्द ही सारा ज्ञान आत्मसात कर लिया। यह मेरी किशोरावस्था का टर्निंग पॉइंट था।
पौराणिक कहानियों का प्रभाव
इन पत्रिकाओं में कई कहानियाँ थीं। मसलन, नारद जी ने ध्रुव को “ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र दिया। इससे ध्रुव ने तपस्या की। प्रहलाद को भगवान विष्णु ने बार-बार बचाया। अंत में, नरसिंह अवतार में हिरण्यकश्यप का वध हुआ। दूसरी ओर, अष्टावक्र ने भ्रूणावस्था में पिता की गलतियाँ पकड़ीं। शाप से उनका शरीर आठ जगह से मुड़ा। फिर भी, उन्होंने “अष्टावक्र गीता” लिखी। राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ जीता और पिता को मुक्त कराया।
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की प्रेरणा
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने मुझे प्रभावित किया। उनकी ‘कल्याण’ पत्रिका ने मेरा कल्याण किया। इन कहानियों ने मेरे मन में गहरी छाप छोड़ी। इस तरह मेरी किशोरावस्था में ज्ञान और श्रद्धा का बीज बोया गया।
ऐसा था कल्याण पत्रिका और श्रद्धेय पोद्दार जी की कहानियों का शुचि और सुन्दर असर जिसने एक किशोर के खोजते भटकते मन को राह सुझाई।
* मेरा अपना ऐसा मानना है कि मुझे प्राप्त शुचि संस्कारों के फलस्वरूप मेरी किशोरावस्था में ही मेरे साथ कुछ चमत्कार घटित हुए। ऐसे ही दो चमत्कार मैं आपके साथ शेयर करूँगा… आप विश्वास करें या न करें, यह आपकी इच्छा है।
मेरे जीवन के चमत्कार
चमत्कार नंबर 1: ठाकुर जी और पराठा
गर्मियों का दिन
यह गर्मियों की बात है। संध्या का समय था। माँ रसोई में पराठे बना रही थीं। मैं आसपास खेल रहा था। फिर माँ ने मुझे बुलाया। उन्होंने कहा, “बेटा, यह पराठा ठाकुर जी को भोग लगा दे।”
भोग लगाने की प्रक्रिया
मैंने हाथ धोए। माँ से पराठा लिया और ठाकुर जी की अलमारी तक गया। मैं छोटा था। इसलिए, डेढ़ फुट ऊँची चौकी पर चढ़ना पड़ा। माँ को भोग लगाते देखा था। उसी तरह मैंने प्लेट सजाई। पर्दा खींचा, घंटी बजाई, आँखें बंद कीं। मन में प्रार्थना की, “भगवान जी, भोग खाइए।”
आधा पराठा गायब
पाँच मिनट भी नहीं लगे। पर्दा खोला तो आधा पराठा गायब था। मैंने माँ को प्लेट दी। कहा, “माँ, भगवान जी ने आधा ही खाया।” माँ मुस्कराईं। बोलीं, “कोई बात नहीं, बेटा। बचा हुआ तू खा ले।”
क्या था सच?
मुझे नहीं पता। क्या यशोदा जी ने कृष्ण के चमत्कार पर यकीन किया था? लेकिन मेरा दिल कहता है। शायद ठाकुर जी ने माँ से कहा हो, “तेरा बेटा सच्चा है। आधा पराठा मैंने खाया।”
चमत्कार नंबर 2: परीक्षा का रहस्य
सालाना परीक्षा का दबाव
यह स्कूल की सालाना परीक्षा का समय था। सफल होने पर अगली कक्षा मिलती थी। असफल होने पर पुरानी कक्षा में रहना पड़ता था। दोस्त आगे बढ़ जाते थे। यह आत्मग्लानि और समय बर्बाद होने का डर देता था। सफल या असफल का ठप्पा बहुत मायने रखता था।
इतिहास की परीक्षा
मैं चौथी या पाँचवीं कक्षा में था। शायद इतिहास की परीक्षा थी। सभी सवालों के जवाब मुझे आते थे। मैंने जल्दी लिख लिया। कॉपी जमा करने की तैयारी की। तभी कुछ अजीब हुआ।
किताब का रहस्य
मेरी इतिहास की किताब डेस्क पर खुली पड़ी थी। सारा समय वही रही। न मुझे दिखी, न निरीक्षकों को। यह देखकर मैं डर गया। पसीने छूटने लगे। गला सूख गया। सोचा, “कोई विश्वास नहीं करेगा कि मैंने किताब नहीं देखी। हे भगवान, अब क्या करूँ?”
चमत्कारिक हल
फिर हिम्मत आई। किताब को कॉपी में लपेटा। अलमारी तक गया। किताब धीरे से नीचे गिरा दी। कॉपी जमा की और बाहर आ गया। यह चमत्कार नहीं तो क्या था? आप ही तय करें।
आगे की कहानी

* समय का चक्र चलता रहा….और अब मैं बड़ा हो गया हूँ।
* स्वंय की पढ़ाई-लिखाई चिकित्सक या (डॉक्टर) का पेशा भिन्न भिन्न नौकरियां इत्यादि ।
* विवाह, पत्नी, बाल-बच्चे और परिवार
* जीवन की ऊहापोह, उथल-पुथल, कोर्ट-कचहरी, बीमारी और कठिन तजुर्बे।
* हर दशा में अपने अलमारी वाले ठाकुर जी से साहस और विश्वास मिला….. और
कभी-कभी नहीं भी।
* कभी लगा भोले भंडारी भगवान शिव ने दया का भंडार खोल दिया…..तो कभी बजरंगबली ने राम रसायन देकर मेरा कल्याण कर दिया….. तो, कभी लगा करूणानिधि भगवान राम ने मेरे, मेरे परिवार और मित्रों के ऊपर करूणा करके अनगिनत चमत्कार कर दिये।
राम झरोखा बैठ कै, सबका मुजरा लेत। जैसी जा की चाकरी, वैसई वा को देत ।।
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मंत्री मयंकेश्वर शरण सिंह जी से मुलाक़ात
मृदुल कीर्ति
भागती उम्र ने ठहरना कहां सीखा है,
जीवंन ने कभी रुकना कहां सीखा है।
चुन सके तो चुन ले एक एक लम्हा तू,
हर लम्हा जिया हर पल से जीना सीखा।
very nice
बहुत ही सुंदर लिखा है आप ने और उतना ही जोश से बोला भी है।हमसब आपसे प्रेरणा लेते हैं।
अद्भुत अद्भुत अद्भुत 🪷🙇
उम्र के इस पड़ाव पर पूज्य गुप्ता जी की सकारात्मक ऊर्जा को शत शत नमन 🙇 असीम प्रसन्नता हुई उनकी यादों के झरोखों में झांकते हुए। ऐसे बिरले बहुमुखी व्यक्तित्व को देखना सुनना और महसूस करना किसी तीर्थ से कम नहीं। उन्हें पुनः पुनः सुनने की इच्छा बनी रहेगी।
उनके शतायु जीवन की प्रार्थना के साथ सादर।
आदरणीय गुप्ताजी
आज के शिक्षक दिन के अवसर पर आप जैसी महान शख्सियत को सुनने का और देखने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ उसके लिए भावना जी को अभिनंदन और वंदन चुभन पॉडकास्ट के द्वारा वे अनेक सितारों का परिचय कराती है मगर आप जैसे जवान और और जवा दिलआज तक नहीं देखे। आपके उत्साह ज्ञान और बहुमुखी प्रतिभा को सिर्फ नमन कर सकते हैं बाकी तो आपके बारे में लिखने की हमारी हैसियत ही नहीं है। प्रणाम प्रणाम प्रणाम
आदरणीय गुप्ता जी को सादर प्रणाम
आप के विषय में जान कर बेहद खुशी हुई।
बचपन में पड़े संस्कार कितना प्रभाव डालते है यह स्पष्ट होता है। साथ ही यह प्रेरणा भी मिलती है कि बच्चो को सनातन धर्म और शिक्षा की जानकारी अवशय देनी चाहिए। मेरी स्वयं की ढ़ाई वर्ष की नातिन भी रामायण महाभारत और दशावतार की कहानियाँ सुनाती है । वास्तव में बच्चो के मुख से यह सब सुनने से मन गर्व से भर जाता है।
आप को सुनना गीता को सुनने के समान लगा। अनेक जानकारी और ज्ञान की बातें संस्कारों की बातें सभी मन को आह्लादित कर गई।
सादर प्रणाम