भारतीय परंपरा में शिव-तत्व

हमारी भारतीय संस्कृति इतनी विशाल है कि उसका प्रत्येक कार्य चाहे उपवास हो, पूजन हो, ध्यान हो अथवा सामाजिक कार्य हो, सदैव संस्कृति से जुड़ा रहता है। हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है किन्तु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वे हर स्थान पर पूजे जाते हैं और सावन के महीने में तो शिव पार्वती की उपासना का अपना अलग ही महत्व है।पूरा श्रावण मास ही शिवमय हो जाता है।हमारे प्राचीन ग्रन्थ जो हर जिज्ञासा को शान्त करने में समर्थ हैं, जो श्रुति-स्मृति के देदीप्यमान स्तम्भ हैं, ऐसे वैदिक वाड्.मय में स्थान-स्थान पर शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से सम्बोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।
‘शिवतत्त्व’ का तात्पर्य है -शिव का सिद्धान्त। शिवतत्त्व को समझे बिना मानव जीवन का जगत् के अन्य पक्षों से सम्बन्ध समझा नहीं जा सकता । भगवान् शिव अनेक नामों और रूपों का सुन्दर समन्वय है- जैसे शंकर, शम्भू, महेश। शिवतत्त्व हमें अत्यन्त सुन्दर माध्यम से भगवान् शिव के विरोधाभासी गुणों को स्पष्ट और उजागर करता है। शिव संहारक भी हैं और उत्पन्नकर्ता भी। वे एक ही समय अज्ञानी भी हैं और ज्ञान के भण्डार भी। वे चतुर भी हैं और दानी भी। उनके संगी-साथी भूत, प्रेत, सांप इत्यादि हैं लेकिन वे ऋषियों, सन्तों तथा देवताओं के भी आराध्य पुरुष हैं। शिवतत्त्व कल्याण का दर्शन है। इसी तत्त्व के मर्म को समझकर हम समाज में साहचर्य एकात्मकता और सद्गुणों का प्रचार कर सकते हैं। शिव वही तत्त्व है जो समस्त प्राणियों का विश्राम-स्थल है। ऋषियों, मुनियों ने अनेक चमत्कारिक अन्वेषण किए हैं पर शिवतत्त्व की खोज अद्भुत थी जो ब्रह्माण्ड के समस्त रहस्य खोलते हुए जीवन-मरण के चक्र से मुक्त करती थी।
‘तत्त्व’ क्या है? पूरा ब्रह्माण्ड तत्त्वों से ही बना है, और जो भी ब्रह्माण्ड में है वह शरीर में भी है। इस बात को श्रीकृष्ण, अष्टावक्र, शंकराचार्य तथा अनेक ऋषियों ने समझाने का प्रयास किया है। तत्त्व जागृत किए बिना ईश्वर के दर्शन सम्भव ही नहीं। शिवतत्त्व जागृत होगा तो शिव सामने आयेंगे। शक्तितत्त्व जागृत होगा तो महाकाली के दर्शन सम्भव होंगे।
शिव आदिदेव हैं। वे महादेव हैं। सभी देवों में सर्वोच्च और महानतम शिव को ऋग्वेद में ‘रुद्र’ कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। शिव ही ब्रह्म हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रारम्भ में ब्रह्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा उठायी गयी है। पूछा गया है कि जगत् का कारण जो ब्रह्म है, वह कौन है –
किं कारणं ब्रह्म
श्रुति ने आगे चलकर इस ‘ब्रह्म’ शब्द के स्थान पर ‘रुद्र’ और ‘शिव’ शब्द का प्रयोग किया है –
एको हि रुद्रः।
स ……..शिवः।।
समाधान में बताया गया है कि जगत् का कारण स्वभाव आदि न होकर स्वयं भगवान शिव ही इसके अभिन्न निमित्तोपादान कारण हैं ।
‘शिव’ और ‘रुद्र’ ब्रह्म के पर्यायवाची शब्द है। ‘शिव’ को ‘रुद्र’ इसलिए कहा जाता है कि अपने उपासकों के सामने अपना रूप शीघ्र ही प्रकट कर देते हैं।
भगवान शिव को ‘रुद्र’ इसलिए भी कहते हैं – ये ‘रुत् ’ अर्थात् दुःख को विनष्ट कर देते हैं।
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है वह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है- ‘जिसे सब चाहते हैं’। सब चाहते हैं अखण्ड आनन्द को। शिव का अर्थ है-आनन्द। शिव का अर्थ है- परम मंगल-परम कल्याण।
शिवतत्त्व से तात्पर्य विध्वंस या क्रोध से भी है। दुर्गासप्तशती के पाठ से पहले पढ़े जाने वाले मन्त्रों में एक मन्त्र है –
ऊँ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामी नमः स्वाहा।
दुर्गासप्तशती में आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व के साथ-साथ, शिवतत्त्व का शोधन परम आवश्यक माना गया है। इसके बिना ज्ञान-प्राप्ति असम्भव है।
शिवतत्त्व विध्वंस का भी प्रतीक है- सृजन और विध्वंस अनन्त श्रंृखला की कड़ियां है जो बारी-बारी से घटित होती हैं। ज्ञान, विज्ञान, आध्यात्मिक, भौतिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में यह सत्य है। ब्रह्माण्ड की ‘बिग बैंग थ्योरी’ इसी बात को प्रमाणित करती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक महाविस्फोट के बाद हुई। विस्फोट से सृजन हुआ न कि विनाश।
जब सृष्टिकाल के उपद्रवों से जीव व्याकुल हो जाता है, तब उसको दीर्घ सुषुप्ति में विश्राम के लिए भगवान् शिव सर्वसंहार करके प्रलयावस्था व्यक्त करते हैं।
शिवतत्त्व तो एक ही हैं।
एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।
उस अद्वय-तत्त्व के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ।
जिज्ञासा होती है कि शिव एक ही हैं, तब वे अनेक नामों और अनेक रूपों को क्यों ग्रहण करते हैं? इसके उत्तर में श्रुति ने कहा है कि प्रयोजनवश भगवान् शिव अपनी अनेक मूर्तियाँ बना लेते हैं।
आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक इन तीनों दृष्टियों से युक्त रुद्रदेव की उपासना हम करते हैं। वे देव जीवन में सुगन्धि(सदाशयता) एवं पुष्टि(सामथ्र्य) का बोध कराने वाले हैं –
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।
यहां शिव को मृत्यु के भय से मुक्त करने वाला तथा अमृतत्त्व प्राप्त कराने वाला कहा गया है।
शिव का महत्व इतना है कि वे सर्वाधिक पूजनीय हैं। इसीलिए कहा गया है कि ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ अर्थात् शिव ही सत्य है, सत्य ही शिव है, शिव ही सुन्दर है। शिव और शक्ति मिलकर ब्रह्माण्ड का निर्माण करते हैं। इस सृष्टि में कुछ भी एकल नहीं है। अच्छाई है तो बुराई है। प्रेम है तो घृणा भी है। शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक हैं।
हमारे उपास्य ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ देव हैं, परब्रह्म हैं, वहीं ब्रह्मा हैं, वही शिव हैं, वही इन्द्र हैं, वही विष्णु हैं, वही प्राण, काल, अग्नि, चन्द्रमा हैं, जो कुछ स्थावर-जंगम है, सब हमारे ही प्रभु हैं, तब इस रुचिवाले उपासक को सब प्रकार से सन्तोष हो जाता है।
इसी प्रकार यदि किसी की रुचि जगदम्बा की ओर है तो उसके लिए परमात्मा देवी के रूप में आते हैं। वेद ऐसे उपासकों को बताता है कि ‘सृष्टि के आदि में एकमात्र ये देवी ही थीं। इन्हीं देवी ने ब्रह्माण्ड उत्पन्न किया, उन्हीं से ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र उत्पन्न हुए।’ वेद ने सूर्योपासक को आश्वासन दिया कि तुम जिसकी ओर झुके हो, वह परब्रह्म परमात्मा है। वही अद्वय-तत्त्व है, उसी से सबकी उत्पत्ति होती है।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘शिवतत्त्व’ एक ही है, उसी के ब्रह्मा, विष्णु, गणपति, दुर्गा, सूर्य आदि भिन्न-भिन्न नाम और रूप हैं। वेद के अनुसार सत्- असत् जो कुछ भी है, सब ईश्वर है। ईश्वर के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं है।
इस प्रकार वेद ने मानव-मात्र के लिए बहुत ही सुगम साधन प्रस्तुत कर दिया है। जब हम समस्त जड़-चेतन को भगवन्मय देखते हैं, तब सबका सम्मान करना हमारे लिए आवश्यक हो जाता है। अपमान करने वाले का भी हमको सम्मान ही करना होगा, क्योंकि वह भी शिव-तत्त्व से भिन्न नहीं है।
इस प्रकार यदि वर्तमान समय में जबकि विश्व में प्रेम, सद्भाव एवं शान्ति का अभाव सा होता दिख रहा है तथा मनुष्य में मनुष्यत्व समाप्त होता जा रहा है, यदि हम ‘शिवतत्त्व’ के मर्म को समझ कर समाज में साहचर्य, एकात्मकता तथा सद्गुणों का प्रचार करें तो एक नवीन विश्व का निर्माण सम्भव है जहां सुख, शान्ति, आनन्द और सन्तोष होगा। मानव मात्र का कल्याण होगा।

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