वाराणसी के पास एक कस्बे में रहते थे रामकिशोर शुक्ला। जीवन ने उन्हें कभी सुख की थाली परोसकर नहीं दी, पर दुखों की भारी गठरी ज़रूर दी। बेटे के जन्म के बाद से ही उनकी पत्नी की तबियत खराब रहने लगी थी। प्रसव के बाद खान-पान सही न हो पाने के कारण वह बहुत कमजोर हो गई थी। वह घर का कोई काम नहीं कर पाती थी। धीरे धीरे वह इतनी कमजोर हो गई कि बिस्तर से उठ भी नहीं पाती थी। बच्चे का सारा काम रामकिशोर ही करते थे। पत्नी को नहलाना- धुलाना खाना खिलाना, दर-दवाई देना सब रामकिशोर को ही करना पड़ता था। घर बाहर दोनों जगह और छोटे बच्चे को संभालते- संभालते वे भी ज़िन्दगी में थकने सा लगे थे।
डॉ. सत्या सिंह जी ने चुभन के पटल पर एक कविता सुनाई बाबूजी पर…..जिसको सुनकर हर कोई भावुक होता है और आंखें नम होती ही हैं। सुनिए उनकी यह रचना उनके दर्द भरे शब्दों में –
👆डॉ. सत्या सिंह जी ने चुभन के पटल पर एक कविता सुनाई “बाबूजी” ऐसा कोई नहीं होगा जिसकी आंखें नम न हों सुनकर। सुनिए इस भावुक रचना को।
पत्नी की मृत्यु –
हर सुबह एक उम्मीद और शाम होते ही थकान सब कुछ ऐसे ही चल रहा था कि जब रामकिशोर का बेटा पाँच बरस का हुआ पत्नी परलोक सिधार गईं, और बेटे विनय की आँखों में मासूम सवाल छोड़ गईं कि, “अब अम्मा कौन होगी?” रामकिशोर ने बेटे की हथेली थामी और कहा, “बेटा, अब तेरी माँ और पिता दोनों मैं ही हूँ, तू चिंता मत करना, तेरा हर आँसू मेरी छाती पर सूख जाएगा।” उस दिन से उन्होंने अपने जीवन की हर साँस बेटे के लिए गिरवी रख दी।
बेटे के भविष्य के लिए त्याग –
खुद के सपनों का दीप बुझाकर, बेटे के भविष्य का दीप जलाया। उधर विनय होशियार निकला जिससे पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहा। पिता ने उसकी पढ़ाई के लिए खेत का छोटा-सा टुकड़ा, पुरानी जमीन, माँ के गहने सब बेच दिए तथा वे कहते थे कि, “मिट्टी तो फिर उपज जाएगी, पर बेटे का सपना अगर रुक गया तो जीवन बंजर हो जाएगा।”
बेटे को सफलता –
रामकिशोर के त्याग, अपनी लगन और परिश्रम से विनय एक दिन अफ़सर बन गया। चमक-दमक वाला घर, नौकरी और नई दुनिया… पर पिता की झुर्रियों भरी हथेली में अब सिर्फ़ अकेलापन बचा था। बहू अक्सर विनय से कहती कि, “आपके पिताजी हरदम बीमार रहते हैं जिससे घर का माहौल भारी हो जाता है। हमें अपना जीवन भी तो जीना है।” विनय चुप हो जाता।
पिता को वृद्धाश्रम छोड़ना –
घर में रोज-रोज पिता को लेकर पत्नी द्वारा झगड़ा करने और घर का माहौल कलहपूर्ण होने के कारण एक दिन विनय…पिता को वृद्धाश्रम की चौखट पर छोड़ आया। रामकिशोर ने जाते-जाते बस इतना कहा, “बेटा, जड़ों को काटकर शाखें कभी फलती-फूलती नहीं। याद रखना।”
वृद्धाश्रम का जीवन –
वृद्धाश्रम एक ऐसा आश्रम था जहाँ हर चेहरा अपने-अपने घर की अनकही कहानी कहता था। किसी का बेटा विदेश चला गया था, किसी की बहू ने दरवाज़ा बंद कर दिया था, कोई अपने बच्चों पर ही बोझ बन गये थे……वे सब वृद्धाश्रम की चाहरदिवारी में तिल-तिल घुटते हुए अपने दिन गुज़ार रहे थे। वह वृद्धाश्रम गंगा के किनारे बना हुआ था….रामकिशोर हर सुबह गंगा की ओर देखकर प्रार्थना करते कि माँ मेरे बच्चे को सद्बुद्धि दो….और उम्मीद लगाए वृद्धाश्रम के दरवाजे की तरफ उनकी आँखें पथरा सी जाती कि,“शायद आज बेटा आ जाए।”
लखनऊ के एक वृद्धाश्रम में डॉ. सत्या सिंह जी के बुजुर्गों के साथ कुछ पल।
समय गुजरता गया….
लेकिन दिन महीनों में, और महीने बरसों में बदलते गए। वे अन्दर से एक दम टूट गये और बीमारी ने धीरे-धीरे उनके शरीर को जकड़ लिया। निराश होकर रामकिशोर एक दिन अधीक्षिका के पास गये और उनका हाथ पकड़कर बोले, “बेटा न आए, तो मेरी अस्थियाँ यहीं रख देना। शायद किसी दिन तर्पण की औपचारिकता निभाने के लिए वह लौटे। पर मेरी डायरी… उसे ज़रूर देना, उसमें मेरे हृदय की राख है।” और कुछ ही दिनों बाद उन्होंने आँखें मूँद लीं।
पिता के देहांत की खबर –
विनय अपने कार्यालय में बैठा था कि,फोन की घंटी बजी फोन वृद्धाश्रम से था …….“आपके पिताजी अब नहीं रहे।”
आवाज़ ठंडी थी, जैसे किसी सूखी पत्ती का टूटना। विनय और उसकी पत्नी वृद्धाश्रम पहुँचे। बहू ने धीरे से कान में कहा, “बस अस्थियाँ ले लीजिए, ताकि तर्पण की रस्म पूरी हो जाए। समाज क्या कहेगा अगर हमने श्राद्ध न किया?”
पिता की धरोहर –
अधीक्षिका ने कलश थमाया, साथ में एक टूटी घड़ी, चश्मा और एक मोटी डायरी। “ये आपके पिताजी की धरोहर है…उन्होंने कहा था कि, ‘इसे मेरे बेटे तक पहुँचा देना।”
तर्पण नही स्नेह की आस –
घर लौटते समय विनय ने अनमने भाव से डायरी खोली। पहला पन्ना पढ़ते ही उसकी आत्मा काँप उठी लिखा था, “प्रिय बेटे, विनय ! जब तू छोटा था, तो मैंने हर रात तेरे सिरहाने बैठकर सपनों को पहरा दिया। तुम्हें कोई कमी न हो वह सब किया था…..तुम्हें पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाने के फेर में तुम्हें संस्कार और संवेदनशीलता देना भूल गया। पर अब… जब मैं बूढ़ा हो गया, तो मैंने चाहा कि एक बार तू मेरे सिरहाने बैठ जाए और मुझसे पूछे कि,पिताजी आप कैसे हैं आपको कोई तकलीफ तो नहीं है पर….। बेटा! मुझे तर्पण की नहीं, तेरे स्नेह की आख़िरी बूंद की प्यास थी। वही मेरी गंगा होती।”
बेटे का पछतावा –
हर पन्ने पर करुण शब्द थे। “बेटा, तू मेरी आँखों का सपना है…..तेरे लिए मैंने कितनी बरसातों को भीगा रह कर सह लिया……कितनी रातों को सोया नहीं….बेटा ! “मेरी झुर्रियाँ तेरे सुख का मोल हैं।” विनय के आँसू पन्नों को भिगोने लगे। बहू ने घबराकर पूछा, “क्या हुआ?” वह टूटकर बोला, “हमने उन्हें जीवन में कुछ नहीं दिया। और अब उनकी राख लेकर दिखावा करेंगे। यह तर्पण उन्हें नहीं, हमें जला देगा।”
पितृऋण चुकाने का मार्ग –
अगले दिन गंगा किनारे लोग जुटे। मंत्रों की गूँज और जल की लहरें। पुजारी ने कहा, “पुत्र, अपने पिताजी का तर्पण कर, यही पितृऋण चुकाने का मार्ग है।” विनय ने हाथ जोड़कर कहा, “पंडित जी, तर्पण तो मैं अभी कर दूँगा, लेकिन सच यह है कि मैंने पिता को जीते-जी कोई तर्पण नहीं दिया। उनकी आँखों ने स्नेह माँगा….. मैंने वृद्धाश्रम दिया….. उनकी हथेलियों ने सहारा माँगा, मैंने दूरी दी… तो उनका यह अभागा बेटा आज इन अस्थियों का तर्पण क्या देगा? असली तर्पण तो वही था, जो जीवन रहते होना चाहिए था।” लोग स्तब्ध थे। हर किसी की आँखों से आँसू बह निकले। गंगा की लहरें भी मानो उसकी पीड़ा को बहाकर ले जा रही थीं।
सच्चा तर्पण –
और उस दिन वहीं पर विनय ने प्रण लिया कि, “अब से मैं हर उस बुज़ुर्ग का बेटा बनूँगा जिसे उसके अपनों ने छोड़ दिया है। यही मेरा प्रायश्चित होगा, यही सच्चा तर्पण।”
दोस्तों,
“मृत्यु के बाद की रस्में केवल औपचारिकताएँ हैं। जीवन रहते माता-पिता को दिया गया स्नेह, सम्मान और सहारा ही उनका सच्चा तर्पण है।