भारत भूमि में माँ का महत्व और आज की स्थिति : नवरात्रि विशेष

  कमल किशोर राजपूत “कमल” सूफी गीत “मेरे हद की सरहदें” प्रसिद्ध कबीर गायक पद्मश्री प्रह्लाद सिंह तिपनिया जी ने […]

 

कमल किशोर राजपूत “कमल”
सूफी गीत “मेरे हद की सरहदें” प्रसिद्ध कबीर गायक पद्मश्री प्रह्लाद सिंह तिपनिया जी ने गाया।

इंजीनियर, वरिष्ठ वैज्ञानिक – DRDO, निजी आई.टी. कम्पनी और शायर/कवि. 6 संग्रह गीतों, भजनों, गज़लों के।

विश्व का एक ही देश है जहाँ पर सदियों से ’बरगदी सभ्यता’ अर्थात प्रकृति, मानव और सर्व प्राणियों के बीच समग्र समावेश को विशिष्ट महत्व दिया जाता रहा है, यहीं से आध्यात्मवाद के विश्वरूपी शाश्वत सत्य की नींव रखी गई।

सनातन धर्म की पहचान –

शाश्वत सनातन धर्म, कालान्तर में हिन्दू धर्म से पहचाना गया उसकी व्यवहारिक एवं मनोवैज्ञानिक सरलता में निहित गूढ़ता, विशालता एवं गहराई का स्पष्टीकरण या आंकलन, अपनी विश्लेषणात्मक क्षमता या दृष्टिकोण में निहित है। इसीलिये “वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसी मीठी कल्पना जन्मी, कितना मधुर सन्देश है सम्पूर्ण जगत के लिये! कितनी विशालता है इस परिकल्पना! में, कितनी गहराई है इस चिन्तन में!

जीवन के स्तंभ –

सन्तुष्टि और शान्ति ही जीवन के स्तम्भ हैं जहाँ मानवता की बरगदी जडें शाखाओं का रूप लेकर पुन: नई जडें बनकर एक विशाल पेड बनी! सांख्य दर्शन जिसमें पूर्ण अवतार श्रीकृष्ण ने सर्वोत्तम बात कही है कि प्रकृति और पुरूष के बीच भावनाओं का अनमोल, अमर, शाश्वत अनुबन्धन है।

प्रकृति पूजा –

ये अकेला देश है जहाँ प्रकृति को पूजा जाता रहा। इसी परम्परा में विविधता से ओतप्रोत भारत में अनेकों त्योहारों का उदगम हुआ हर प्रदेश में, कहीं शिव, कहीं विष्णु, कहीं कृष्ण, कहीं दुर्गा जिसके नौ रूपों को विशेष स्थान मिला। शक्ति तो एक ही है उसे अलग-अलग नाम दिया गया ताकि जीवन गुलदस्ता बना रहे, अनेकों पुष्पों की विविध खुशबुओं से महकता हुआ…..

प्रार्थना –

विगत दिनों में ये प्रार्थना कितनी गहन थी –

असतो मा सद्गमय – असत्य से सत्य का मार्ग दिखाओ।

तमसो मा ज्योतिर्गमय – अन्धकार से प्रकाश का मार्ग दिखाओ।

मृत्योर्मामृतं गमय – मृत्यु से अमरता का मार्ग दिखाओ।
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः॥ हर तरफ शान्ति हो! शान्ति हो! शान्ति हो!

माता – पिता और गुरु –

आज भी पूजा होती हैं, मन्दिरों में त्योहारों में लेकिन कृत्रिमता के परिवेश में। आज सर्वव्यापी माँ का तो स्वरूप ही बदल गया है। एक समय था जब माँ को देवी और पिता और गुरू को देवता माना जाता था और अन्त तक उन्हें उसी रूप में पूजा जाता था सँवारा जाता था अन्तर्मन के सेवा-भावों से। आज के भौतिक जगत में सभी माप-दण्ड ही बदल गए हैं। आज के संदर्प में वृद्धावस्था एक अभिशाप-सा बन गयी है, पैसों की भूख ने बरगदी और कुनबे वाली सभ्यता को धराशायी कर दिया। बडा दु:ख होता है जो दिखाई देता है। पैसों, पदवियों और प्रतिष्ठाओं की चपेट में आकर मानव की मानवता, संवेदना और अपनत्व जैसे विशाल स्तम्भ तो जैसे पाताल में समा गए हैं।

रोबोटिक सभ्यता का उदय –

अब आज के सामाजिक धरातल को परखा जाए तो AI और Robotic सभ्यता ने जीवन की बरगदी शैली को पूर्णरूपेण ध्वस्त कर दिया है, धराशायी कर दिया है या यूँ कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उस कुनबे वाली सभ्यता का चहु-ओर सर्वनाश हो गया है। नवरात्रि जैसे पावन त्योहार में भी कृत्रिमता की आँधी-सी आ गई है जहां भावनाएं, संवेदनाएं दिखाई ही नहीं देती, पूजा है लेकिन अन्तर पूजन नदारद! अचानक ये कविता याद आई शायद यह पंक्तियां पाठकों के अन्तर में गूँजित होंगी –

जाने क्यों गुजरे जमाने की याद आई –

जाने क्यों गुज़रे ज़माने की याद आई?
कुछ खट्टे, कुछ मीठे लम्हों की याद आई ..

मिलकर साथ रहने की प्रथा थी अलग,
दुःख-सुख में जीने की अदा थी अलग,
देखो न आज सारे कुनबे बिखर गए,
टूटकर कितनी इकाइयों में बदल गए,
परिवार छोटी-छोटी सल्तनतों में सिमट गए,
रिश्तों के न जाने कितने हिस्से हो गए,
नौनिहालों की गरिमा के भी किस्से हो गए,
जो थे पास अपने वो दूर, बेगाने हो गए,
दूध-दही की गँगा मुझे बहुत याद आई …

जाने क्यों गुज़रे ज़माने की याद आई? ..

काश! वो मीठे लम्हें वापस लौट आएँ,
क़िस्से चाहत के फिर से जवाँ हो जाएँ,
पुष्पों के तोरण, महका दें हरेक आँगन,
हरियाली में झूले और झूमे हरेक सावन,
ख़ुशबुओं से महक जाए प्रत्येक प्राँगण,
फिर से खिल जाए घर-घर मनभावन,
स्वप्निल, सुनहरे त्योहार फिर लौट आएँ,
मिटे कृत्रिम व्यवहार सहगान मिलके गाएँ,
नींद में कल रात आँखें मेरी ड़बड़बाई …

जाने क्यों गुज़रे ज़माने की याद आई?
कुछ खट्टे कुछ मीठे लम्हों की याद आई …..

 

👆दिल छूती इस कविता का पाठ सुनें।

वेदों और उपनिषदों का प्रादुर्भाव –

हम भारतवासी भाग्यशाली हैं, हमारी ही शाश्वत सनातन धरती पर वेदों और उपनिषदों का प्रादुर्भाव हुआ था, अतुल्य अमूल्य ज्ञान जो हमें विरासत में मिला था उसकी महत्ता का कितना ह्रास हुआ है। हाय! कैसी विड़म्बना है! कि हम ख़ुद ही अपनी बहूमुल्य धरोहर को सहेज नहीं पा रहे हैं और इस शाश्वत ख़ज़ाने का अर्थ ही समझ नहीं पा रहे हैं। अन्तत: यही कहूँगा कि आध्यात्मिक जागरण से ही हम अपनी संस्कृति का सम्मान कर पाएँगे और उस पर गौरवान्वित हो सकेंगे और  जीवन की सच्चाई और शान्ति के मार्ग पर अग्रसित हो सकेंगे और नवरात्रि जैसे पावन त्योहार की महत्ता समझ सकेंगे, इस पावन त्योहार में माँ के चरण-कमलों में कमल की ये प्रार्थना, माँ! इसे स्वीकारो।

“ऐ माँ हमें आशीषों की गुड़ धानी दो” –

ऐ माँ हमें आशीषों की, गुड़ धानी दो, गुड़ धानी दो,
अन्तरमन सबका खिल जाये, करुणा का अपना पानी दो …
हो पास हमारे अन्तर में, फ़िर भी हम एकाकी आकुल हैं,
अमृत बूंदें तुम बरसाओ, फ़िर भी हम कितने व्याकुल हैं,
चिर-विक्षित ना हो जाएँ हम, बचपन की वो नादानी दो ..
ऐ माँ हमें आशीषों की, गुड़ धानी दो, गुड़ धानी दो,
है पन्च-शक्ति सीमा सबकी, माँ की महिमा कैसे समझें?
तव आशीषों की अनुभूति की, हम शब्दमाल कैसे गुँथें?
तुम हो वीणा तुम ही सरगम, अब तुम ही हमको वाणी दो ….
ऐ माँ हमें आशीषों की, गुड़ धानी दो, गुड़ धानी दो,
अन्तरमन सबका खिल जाये, करुणा का अपना पानी दो …

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