अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष:श्रृंखला 1

International Women’s Day Special:part 1 महिला अधिकारों की बुलंद आवाज़ आज महिला दिवस (Women’s Day) के अवसर पर प्रसिद्ध कवयित्री […]

International Women’s Day Special:part 1

महिला अधिकारों की बुलंद आवाज़

आज महिला दिवस (Women’s Day) के अवसर पर प्रसिद्ध कवयित्री और स्त्री विमर्श की लेखिका डॉ. रंजना जायसवाल जी के साथ हम पॉडकास्ट में बातचीत करेंगे और उनके द्वारा दिये गए लेख को भी अवश्य पढ़ें, जिसमें उन्होंने स्त्री विमर्श पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में आपने अपनी लेखनी चलाई और अब तक उनकी 18 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।कई पुरस्कारों से भी आपको सम्मानित किया जा चुका है।

कितना बदला है स्त्री विमर्श ?-रंजना जायसवाल

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ( International Women’s Day) के अवसर पर जब मुझे कुछ लिखने या बोलने को कहा जा रहा है तो मैं यह कहना चाहूंगी कि स्त्री विमर्श कितना बदला है और उसे कितना बदलने की ज़रूरत है, यह समझना बहुत ज़रूरी है।

” मैं हुआ करती थी
एक ठंडी पतली धारा,
बहती हुई जंगलों ,पर्वतों और वादियों में ,
मैंने जाना कि ठहरा हुआ पानी ,
भीतर से मारा जाता है ,
जाना कि समुद्र की लहरों से मिलना, धाराओं को नयी जिंदगी देना है ,
न तो लंबा रास्ता न अंधेरे, खड्ड न रूक जाने का लालच, रोक सके मुझे बहते जाने में, अब मैं जा मिली हूँ अंतहीन लहरों से ,
संघर्षों में मेरा अस्तित्व है और मेरा आराम है मेरी मौत।”

प्रत्येक विमर्श अपने समय में तर्कों ,अध्ययनों ,मनन और चिंतन की प्रक्रिया से गुजरता है परंतु व्यवहार का विमर्श विचार के विमर्श से अलग ही रहता है|
अक्सर ये प्रश्न उठाया जाता है कि आज तो स्त्रियों को हर क्षेत्र में पुरूषों के समान अधिकार प्राप्त हो गए हैं फिर स्त्री विमर्श की जरूरत क्यों ?इसका उत्तर यह है कि स्त्रियां आज भी हिंसा की शिकार हैं, उन पर लगातार हमले हो रहे हैं।हिंसा के दो रूप हैं।एक जो उजागर है ,दृश्य और विदित है ,जिसके विरोध में सरकारी ,गैर सरकारी संगठन ,एन.जी. ओ. सजग और सचेत सभी जगह कार्यरत हैं।हिंसा का दूसरा अदृश्य पक्ष ऐसा भी है जिसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता।स्त्रियाँ स्वयं भी नहीं जानतीं कि उनके साथ हिंसा हो रही है |भारतीय संस्कृति और भारतीय विचारधारा में स्त्री के ‘स्व’,  उसके अस्तित्व की अवधारणा ही नहीं है।स्त्री होने का मूल मंत्र है उत्सर्ग।उसके जीवन की राह निश्चित की गयी है अनुसरण और अनुकरण।
महात्मा गांधी ने भी कहा था -स्त्रियों को गुलामों की तरह जीना पड़ता है |उन्हें पता ही नहीं होता कि वे गुलामों की तरह जी रही हैं ।इसलिए आज स्त्री विमर्श के लिए सबसे बड़ी चुनौती है- स्त्रियों में मुक्ति की आकांक्षा जगाना ।
कितनी अजीब बात है कि हम अपनी जुबान का ,अपने पैरों का ,अपने मस्तिष्क का उपयोग न करने के लिए बाध्य हैं क्योंकि हमारा सब कुछ दूसरों की धरोहर है।औरत के सदगुण,धैर्य ,त्याग, सहनशीलता ,उत्सर्ग भाव ही हिंसा के घटक बन जाते हैं |संगीतकार ,चित्रकार ,रंगमंच से जुड़ी स्त्रियाँ हो अथवा प्रबंधन मे, इंजीनियर ,डाक्टर ,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ मैनेजमेंट ,मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव स्त्रियां या न्यायविद,शिक्षाविद ,कानूनविद ,विज्ञान और तकनीक में परीक्षित शिक्षित स्त्रियाँ-ये सभी अपनी रचनाधर्मिता और अपनी ऊंची या साधारण नौकरी छोड़ने को विवश हो जाती हैं ,अगर शादी के बाद परिवार नहीं चाहे ।क्या यह मानसिक उत्पीड़न नहीं है ?औरत की पहचान को मिटाना उसके स्व को नष्ट करना सबसे बड़ी हिंसा है लेकिन इसे हिंसा नहीं माना जाता ।जो स्त्रियाँ स्वावलंबी हैं ,आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं क्या वे शोषण मुक्त हैं ?उनकी आय उनके घर वाले ले लेते हैं साथ ही उनसे घर के पूरे दायित्व भी उठाने की अपेक्षा की जाती है।कारण औरत को दी गयी भूमिका यानी घर,परिवार ,पति बच्चों की देखभाल है।बदलते समय में उसने घर से बाहर निकलकर एक और भूमिका निभाना शुरू किया है।इस परिवर्तन को समाज और परिवार स्वीकार नहीं कर पा रहा है।यह तब है जब देश की आय का 70 प्रतिशत उत्पादन स्त्रियों द्वारा होता है पर उस पर उनका अधिकार दस प्रतिशत भी नहीं है।लघु और गृह उद्योगों में 93 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं।59 प्रतिशत पुरूषों की तुलना में 54 प्रतिशत स्त्रियाँ कृषि- कार्यों में लगी हैं ।वे खेतों में 10-12 घंटे काम करती हैं ,खेतों को बीजती ,सींचती,गोड़तीं और फसल काटती हैं अर्थात कृषि संबंधी सभी काम करती हैं ,पर क्या जमीन पर उनका कोई अधिकार है ?जमीन की मलकीयत ,रखने-बेचने तथा उत्पादन की बिक्री पर औरतों का कोई अधिकार नहीं है|असंख्य परिवार श्रमशील स्त्रियों की कमाई पर पलते हैं पर वे खुद कुपोषण के कारण ,रक्त की कमी ,कैलशियम की कमी के कारण अनेक बीमारियों से जूझती हैं।क्या ये हिंसा नहीं है ?तो यह साफ है कि स्त्री को दी गयी और मान्य सांस्कृतिक ,धार्मिक ,सामाजिक ,पारिवारिक स्थितियाँ ,सभी स्तरों पर दृश्य से अधिक विकराल अदृश्य हिंसा में सक्रिय हैं और ये स्त्री के ‘स्व’, उसकी सोच और उसके व्यक्तित्व को नष्ट करती हैं ,उसके दमन को गौरवान्वित करती हैं |
आज का स्त्री विमर्श चेत गया है और उसका प्रतिकार कर रहा है |हाइटेक संस्कृति ,साइबर संसार ,वैश्वीकरण के साथ भौतिकतावाद और उपभोक्तावादी संस्कृति से त्रस्त स्त्री विमर्श ने पहले देह विमर्श का आश्रय लिया था पर उसे जल्द ही लग गया कि देह की आजादी उपभोक्तावाद का नारा है । इसमें पुरूषों को ही फायदा है ।


आज स्त्री विमर्श पहले से ज्यादा परिपक्व हो गया है । उसका दायरा काफी बढ़ गया है ।वह विश्व के मानवाधिकार से जुड़ गया है।जिसमें दुनिया भर की स्त्रियाँ शामिल हैं। आज का स्त्री विमर्श मानवाधिकारों का विमर्श बन चुका है |

4 सितंबर से 15 सितंबर तक बीजिंग और हुयारों[चीन] में हुए चौथे विश्व महिला सम्मेलन में विभिन्न देशों की लगभग पचास हजार प्रतिनिधि महिलाओं ने हिस्सा लिया था।इस सम्मेलन में चर्चा के मुख्य मुद्दे थे –महिलाओं पर हिंसा ,महिला शिक्षा ,महिला स्वास्थ्य और महिलाओं के अधिकार,समान काम और समान वेतन का अधिकार ,राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में महिलाओं की सत्ता।इस सम्मेलन में सबसे अधिक चर्चा महिलाओं पर होने वाली हिंसा पर हुई।आश्चर्य की बात यह लगी कि अमरीका और यूरोप के देशों की महिलाएं भी हिंसा की शिकार होती हैं।इस सम्मेलन में कहा गया कि हमारा संघर्ष जारी रहे,हमें मानवाधिकार प्राप्त हो।मानवाधिकार का अर्थ औरत होना और मानव होना है।विश्व को स्त्रियों की आँखों से देखना और काम करना है |मानवता में लोकतान्त्रिक सम्बन्धों का सृजन करना है।मानवाधिकार एक प्रकृति है स्वतंत्र रहने,सम्मान से जीने और मानवता के नाते दूसरों को अधिकार देने और लेने की।मानवाधिकार सामाजिक न्याय व्यवस्था से जुड़ा है।यह एक मूल्य -बोध है जिसमें स्त्रियों के न्याय और समानता के लिए किए गए संघर्ष शामिल हैं।इसमें गर्भपात की स्वतन्त्रता ,पैतृक अधिकारों ,यौन-अधिकारों अर्थात यौन विषयों पर निर्णय लेने की स्वतन्त्रता आदि शामिल हैं |
स्त्री मुक्ति की अवधारणा को सम्पूर्ण मनुष्य की अवधारणा से जोड़ना स्त्री विमर्श की चुनौती बन गया है।स्त्री देह ,स्वास्थ्य,वैचारिकता ,शिक्षा ,आर्थिक स्वावलंबन ,आत्मनिर्णय ,ईमानदारी ,बहादुरी,साहस ,शौर्य की जरूरतों  व गुणों से लैस एक व्यक्तित्व की अवधारणा के रूप में मानना।उसे आर्थिक ,राजनीतिक ,सामाजिक स्तर पर समानता के दर्जे पर पहुँचने के लिए सक्षम बनाना।किसी का किसी पर वर्चस्व जमाने का विरोध भी उतना ही जरूरी है ,जितना मुक्ति की चाहत।यह अवधारणा भिन्न-भिन्न कालों ,समय ,स्थान व समाज में स्त्रियों की जरूरत के हिसाब से होना चाहिए।कहीं देह मुक्ति स्त्री मुक्ति का सबसे बड़ा मुद्दा हो सकता है ,कहीं अंधविश्वासों ,परम्पराओं और अशिक्षा से मुक्ति का ,तो कहीं भूख,बेरोजगारी व लैंगिक भेदभाव का।
पुरूष जैसा होने की अपेक्षा स्त्री होने पर गर्व करना ज्यादा जरूरी है।साथ ही स्त्री शुचिता को इज्जत के साथ जोड़ने की ग्रंथि को भी तोड़ने की , ध्वस्त करने की जरूरत है ताकि आनर किलिंग से स्त्री को बचाया जा सके।
बहुत बदला है स्त्री विमर्श पर उसे और भी बदलने की जरूरत है।

अंत में मैं
फिलिपायन सूजन मैगनों की कविता की इन पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूंगी  –

” विश्व की औरतों
अपनी शक्ति बढ़ाओ
अपनी जंजीरों को तोड़ो
और हिंसा से मुक्त हो जाओ
ऊंची और स्पष्ट आवाज में
अपने लिए नयी दुनिया की घोषणा करो,
जिसमें सब बराबर हों
हमारा सम्मान हो ,
वर्ण संस्कृति या जाति के भेद से ,
हमारे अधिकारों का हनन न हो ,
शांति और स्वतन्त्रता से हमारे सपने और आशाएँ पूर्ण हों।”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top