“स्वर्ण ज्योति जी का साहित्यिक दीपक सदैव प्रकाश फैलाता रहेगा…..
– कमल किशोर राजपूत ‘कमल’
16 अक्टूबर को लखनऊ से भावना घई का अचानक फोन आया कि स्वर्ण ज्योति जी से मिल लें उन्हें अच्छा लगेगा। स्वर्ण ज्योति जी कैंसर जैसी घातक व्याधि की चौथी स्टेज से गुज़र रही थीं। भावना की बातों में भावनाओं का ज्वार उमड़ा हुआ था, अतएव मेरे संवेदनशील हृदय ने स्वर्ण ज्योति जी से मिलने का निश्चय किया, उन्हें फोन किया और उनसे मिलने पहुँच गए मित्र प्रेम तन्मय के साथ। किसे पता था वो उनसे आख़िरी मुलाक़ात होगी।
स्वर्ण ज्योति जी मुझे अपना भाई मानती थी। मिलने जाने के पूर्व जब उनसे फोन पर बात हुई तो उन्होंने आग्रह किया कि मैं अपनी ग़ज़ल की किताब “इल्हाम” साथ लाऊँ जिसे मैं लेकर गया, दो और पुस्तकों के साथ “रिश्तों की छत पर..” और “आँखें क्यों नहीं सोतीं”। बहुत प्यार से मिली और बालसुलभ अंदाज़ से पूछी कि “भैया हमारी इल्हाम लाए कि नहीं।” मैंने जब उन्हें तीनों किताबें दीं तो उनके चेहरे पर असीम आनंद की किरणें चमक पड़ी और सहर्ष स्वीकार करके मुझे हृदय से आभार किया।
दोपहर में लंबी औपचारिक बातों के बाद एक गोष्ठी हो ही गई जिसमें उन्होंने अपनी कविता “स्वयंभू” सुनाई। मैंने और प्रेम जी ने भी अपनी रचनाओं को उन्हें सुनाया।प्रेम जी ने “साधौ” और मैंने “ज़िद हमारी ज़िद सही” ग़ज़ल सुनाई, वो अत्यंत प्रसन्न हुई। उनके चेहरे पर अलौकिक खुशी दिखाई दी। हमने वादा किया कि हम पुनःआएँगे……पर अफ़सोस ऐसा नहीं हो पाया।
हाय यह कैसी विडंबना है कि दूसरे ही दिन उन्हें आईसीयू में जाना पड़ा और वहीं से एक नवंबर को हमें छोड़कर वहाँ चली गईं, जहाँ एक दिन सबको जाना है।सब अचानक हुआ। इंसान कितना मजबूर है नियति के नियमों से जहाँ ना तो आना हमारे वश में है और ना ही जाना।
👆🏿जैन मुनि के साथ।
उनके घर से हमारे वापस आने के बाद उनका व्हाट्सअप संदेश मिला जो उनके साहित्यिक विचारों का गूढ़ मंथन ही है। एक एक वाक्य उनकी अंतरात्मा से उतर कर ही आया होगा। शायद यह उनकी लेखनी की गहनता का निचोड़ ही है जो अंतिम संदेश बनकर उभरा जो उनकी साहित्यिक धरोहर का अनमोल अमर रतन ही है जो अनुकरणीय है। लीजिए उनके भावों को उन्हीं के शब्दों में आप भी पढ़ें और महसूस भी करें कि वे साहित्य को किस सर्वोच्च शिखर से अभिभूत करती थीं –
“नमस्कार कमल भाई,
आप का और तन्मय सर का आना बड़ा सुखकर लगा। गज़ल, साधो और कविता ने बड़ा अच्छा समां बाँधा।
यूँ तो साहित्य का आधार ही जीवन है।साहित्य के बिना सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है। साहित्य की सबसे बड़ी खूबी होती है कि वह पावस की बूंद की तरह होता है। बंजर मन को हरा कर देने का सामर्थ्य समेटे हुए। अगर कोई साहित्यिक कृति अध्यात्म का पुट लिए हो, तो मन ही नहीं संवरता जीवन को भी एक राह सी मिल जाती है।
साहित्यकार का लक्ष्य आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में होता है। साहित्य जब तक एक समाज के लिए उपयोगी है तभी तक ग्राह्य है। साहित्य की उपादेयता में ही साहित्य की प्रासंगिकता है।
संवेदना ही एक ऐसी चीज है, जो साहित्य और समाज को जोड़ती है। संवेदनहीन साहित्य समाज को कभी प्रभावित नहीं कर सकता और वह मात्र मनोरंजन कर सकता है।
महान साहित्य उसी को माना गया है जिसमें अनुभूति की तीव्रता और भावना का प्राबल्य रहा है।
इस दृष्टि से हमारी आज की छोटी सी गोष्ठी यादगार रहेगी।
सादर आभार”
इस संदेश के बाद मेरा संदेश स्वर्णज्योति जी को ये था –
“आदरणीय स्वर्णज्योति जी साधुवाद ,
यक़ीनन हमें भी बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर।जीवन में संवेदनशीलता ही हमारा दर्पण है।
आपको सुना, सुनाया और महसूस किया, अच्छा लगा।
जीवन का हर मोड़ हमें अंतर्मन में झाँकने को प्रेरित करता है।
आप अपना हौसला बुलंद रखें, बीमारी को परास्त करने का मौक़ा मिला है आपको, अब उसे हराने का ज़िम्मा आपका है।
“ज़िद हमारी ज़िद सही को आज़माएँ”🪷
अपनी सकारात्मक ऊर्जा बनाये रखिए 🪷”
👆🏿पॉन्डिचेरी की उपराज्यपाल किरन बेदी जी के साथ।
उनसे कोई रिश्ता न होते हुए भी उनका मुझ पर आत्मीय स्नेह था एक अग्रज भाई के समान। उनसे पहली मुलाक़ात ‘शब्द’ संस्था के एक कार्यक्रम में हुई थी। वे बहु प्रतिभा संपन्न, आत्मीय एवम् सरल व्यक्तित्व वाली विरली बहुमुखी लेखिका थीं, साहित्य के उच्चकोटि के शिखर पर उन्होंने कई विधाओं में रचना की और हर क्षेत्र में हृदय से लिखती थी। उनकी सभी रचनाओं में, भले ही पद्य हो या गद्य अपनी आत्मा को उँड़ेल देती थी। आज के युग में कविताएँ या रचनाएँ हृदय से अवतरित नहीं होती दिमाग़ से होती हैं लेकिन उन्हें माँ सरस्वती का विशेष आशीष मिला था इसलिए सारी रचनाएँ संवेदनशील लिखती थी। पढ़ने वाले को जब पढ़कर ऐसा लगे कि वह उनकी है, तभी रचना कालजयी बन जाती है, अमर हो जाती हैं। साहित्य के आकाश में वे हमेशा एक सितारा बन के चमकती रहेंगी।
👆🏿किरन बेदी जी के हाथों सम्मानित होते हुए।
वो स्वर्ण भी थी, वो ज्योति भी थी; उनसे कई बार मिलने के अवसर मिले। बैंगलोर में और एक बार पॉण्डिचेरी में भी। जब भी मिले उनकी सकारात्मक ऊर्जा से असीम प्रसन्नता होती थी, रूहानी पारदर्शिका मिलती थी उनके सानिध्य में। उनकी रचित सभी किताबें वे स्नेह संदेश से देती थीं जो आज साहित्यिक धरोहर है हम सबके लिए। उनकी यादों का गुलदस्ता सदैव महकता रहेगा।
उनकी “स्वयंभू” वो रचना है जो उन्होंने हमें उस अविस्मरणीय मुलाक़ात में सुनाई थी, दिल को छू गई थी काश! हम उनकी इस कविता को रिकॉर्ड किए होते उस दिन। वही कविता जो उन्होंने शायद अंतिम बार ही पढ़ी होगी, उसे पढ़ें –
“स्वयंभू”
तुम्हे पाने की कोशिश में
मैंने ये जाना कि,
तुमसे प्रेम करने में
मैं निस्वार्थी तो नहीं थी !
मैं तुम्हारे बहाने खुद से,
प्रेम कर रही थी ।
तुम तो बस जरिया थे,
मुझे मेरे पास तक लाने के।
तुम्हारे प्रेम में , मैंने स्वयं को,
जितना जाना और चाहा ,
मुझे कोई और उतना जान ,
और चाह ही नहीं सकता ।
वर्जना और सीमाओं में ,
अंतर कर पाना बहुत कठिन है।
पर मैंने सीख लिया था , तभी
कभी कोई वर्जना नहीं लांघी ,
और न कभी तुमसे अतिरेक चाहा।
मैंने निश्चित ही जान लिया था,
अपने असीम प्रेम का सीमांत ।
तुमसे प्रेम करते हुए ही जाना
न्यूनतम में ही अधिकता होती है।
स्निग्ध दृष्टि का अवलम्बंन,
या नाम का उद्बोधन,
एक मुस्कान का सम्मोहन भी ,
आनंद और प्रेम की पराकाष्ठा होती है।
सब जानते थे तुम, फिर भी, यह
मेरी परीक्षा थी या तुम्हारी अनभिज्ञता,
यही कचोटता रहा मुझे, रहा सालता,
मैंने तभी सीखा एकल प्रेम की शिष्टता,
अब सीख रही हूँ स्वयंभू होने की दृढता।
– स्वर्णा
वो यक़ीनन स्वयम्भू ही हो गईं।
निःशब्द हूँ मैं, निःशब्द है मेरी लेखनी, क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कुछ भी लिखने के लिए ना तो पर्याप्त शब्द मिल पा रहे हैं और ना ही हिम्मत कि कुछ लिखूँ उनके प्रति, उनके जाने के बाद।
एक साहित्यिक मुस्कान को अलविदा कैसे कहूँ? भाई मानती थी, हृदय से अभिव्यक्त करती थी, सरलता और स्नेह की जीती जागती तस्वीर थी वो, माँ सरस्वती की अद्भुत कृति, उन्हीं में समा गईं।
ये जल्दी जाने वाले बहुत कुछ दे जाते हैं – जैसे
✨विवेकानन्द, ✨और शंकराचार्य ये दो रतन हैं भारत की शाश्वत संस्कृति के जिन्होंने चालीस और बतीस की उम्र में जो दिया वह अनमोल ख़ज़ाना है सदियों का।
स्वर्णज्योति जी को, उनके साहित्य को पढ़ना अपने आप में अनमोल और अमर श्रृद्धांजलि है। नाचीज़ अपनी इस ग़ज़ल से दिल की बात आप सब तक पहुँचा रहा है स्वीकार करें और महसूस भी।
“लफ़्ज़ों की ख़ामोशियों को, कौन समझेगा यहाँ ?
प्यार की गहराइयों को, कौन समझेगा यहाँ ??
अश्क भी कब तक सुनाते, ज़िंदगी की दासताँ ?
हिज्र की तनहाइयों को, कौन समझेगा यहाँ ??
ख़ुद को समझाया बहुत, दिल है बहलता ही नहीं,
बेबसी, मजबूरियों को, कौन समझेगा यहाँ ??
हमने लब खोले नहीं दिल की ज़ुबाँ होती नहीं,
साँसों की सरगोशियों को,कौन समझेगा यहाँ ??
ज़ुल्म की तह में दबी इंसानियत तोड़े है दम,
डर मुझे उन रुसवाइयों को,कौन समझेगा यहाँ??
ढूँढ लो तुम दिल का मक़सद, लौटना होगा यहीं,
रूह की सच्चाईयों को, कौन समझेगा यहाँ ??
खिल रहा क्यूँ गर्दिशों में, राज़ बतलायेगा “कमल”,
उसकी सब अच्छाईयों को, कौन समझेगा यहाँ ?? “
विनम्र हार्दिक श्रद्धांजलि ॐ शांति।
– कमल
👆🏿श्रीलंका में फ्रांसीसी राजदूत के साथ उनके निवास स्थान पर।
“भावना घई के शब्दों में”-
कई माह बीत गए, लेकिन दिल इस बात को स्वीकार कर ही नही पा रहा कि वे इस दुनिया मे नही हैं और सच भी यह है कि वे हमारे साथ हैं। इतना सौम्य, इतना ममतामयी व्यक्तित्व मेरे जीवन मे कम ही सामने आया। मेरे लिए वे मातृस्वरूपा थीं और मां कभी भी कहीं जाती नही, वो हमारी स्मृति में, हमारी चेतना में हमेशा वास करती है। ठीक ही कहते हैं कि आत्मिक रिश्ते ज़्यादा गहरे होते हैं क्योंकि वहां रिश्ते निभाने की कोई ज़बरदस्ती नही होती, बस सहजता से, प्रेम से रिश्ते बन जाते हैं और पूरे जीवन के लिए निभ भी जाते हैं। ऐसा ही रिश्ता था मेरा उनसे।
आज इतने दिन बीतने के बाद भी खुद को तैयार नही कर पा रही कि उनके लिए कुछ लिखकर अपने शब्दों की श्रद्धाजंलि अर्पित कर सकूं, क्योंकि उनका जाना स्वीकार्य है ही नही मुझे। वे हमेशा मेरे साथ है, एक माँ, एक गुरु और एक दोस्त की तरह। जी हाँ दोस्त…..हम दोस्तों की तरह हर बात करते थे, सब कुछ उनसे कह देती थी, मन हल्का होता था……
उनके रचनाकार रूप की यदि बात करूं तो उनकी हर रचना कुछ अलग और दिल को छूती थी। वे लगभग अपनी हर रचना मुझे भेजतीं थीं और कहती थीं कि जैसा लगे पढ़कर वैसा लिखकर भेजो।
“एक स्त्री की अद्भुत वसीयत” यह कविता, उन्होंने व्याधि के दौरान ही लिखी होगी। आप भी पढ़ें और महसूस करें।
“मेरे न होने पर”-
मेरे न होने पर
जब मेरा कमरा बुहारोगे
तब देखोगे कि हर एक चीज़
कमरे भर में .. बिन ताले के बिखरी पड़ी है
बिस्तर पर कुछ अधूरे ख्वाब होंगे
जिसे तुम उन पुरुषों को दे देना
जो अपनी व्यस्तता के जाल में
फंस कर ख्वाब पूरा करना भूल जाते हैं।
बटुवे में कुछ दबे दबे ठहाके होंगे
मेरे उन साथियों को बाँट देना
जो समाज की ज़न्जीरो में बंध कर
हँसने मुस्कुराने तक से कतराते है।
वहीं टेबल पर कुछ रंग भी दिखेंगे
उस रंग को दे देना उस शिविर में
जहाँ वीरो की वीरांगनाएँ बैठी होंगी
जिन्होंने कल ही तिरङ्गे को ओढ़ा होगा
तकिए के गिलाफ में आँसू भी होंगे
उसे बेकार समझ कर फेंक मत देना,
सुनो उसे तुम तमाम शायरों को दे देना
मेरी मानो हर बूंद से मुकम्मल ग़ज़ल बनेगी
मेरे कुछ आक्रोश भी अलमारी में होंगे
उन्हें तुम नव युवतियों में बाँट देना
कि इनसे वे प्रेरणा पाकर स्वयं को
समाज के माफिक खुद को ढाल पाएंगी
वहीं कोने में मेरी दीवानगी भी मिलेगी
उसे दे देना उस सूफी दिवाने को
जो निकल पड़ा है सब छोड़ कर
खुदा की खोज में स्वयं को भूल कर
बस अब रह जायेगा
मेरी जलन,मेरी ईर्ष्या मेरा लालच
मेरा क्रोध ,मेरा झूठ ,मेरा स्वार्थ,
जिसका नहीं है कोई अर्थ जो है व्यर्थ
उसे जला कर गंगा में बहा देना ।।
– स्वर्णा
उनकी इस रचना पर मेरी प्रतिक्रिया थी, “अनमोल रचना।”
इस पर बड़े प्यार से उन्होंने लिखकर भेजा-
“अरे यार अच्छी सी समीक्षा करो न
बस दो शब्द में मज़ा नहीं आया।” (स्वर्णा)
मैंने लिखा –
“मेरे पास शब्द ही नहीं कि इतनी भावपूर्ण और अनमोल रचना के बारे में कुछ लिख सकूं। आप जो भी लिखती हैं, चाहे गद्य हो या पद्य, उसमें “कुछ” तो ऐसा होता है जो आपको रचनाकारों की एक अलग कतार में खड़ा करता है और आप जानते हो कि वह “कुछ” है, आपका सरल, सहज और ममतामयी व्यक्तित्व।
एक स्त्री की इस तरह से एक अद्भुत वसीयत, वही स्त्री अपने शब्दों में पिरो सकती है, जिसके अंदर इतनी संवेदनशीलता, इतनी भावुकता होगी।अधूरे ख्वाब, दबे ठहाके, तकिए के गिलाफ में सूखे हुए आंसू, कुछ आक्रोश……ये सब कोई भी स्त्री पूरा जीवन समझ ही नही पाती कि उसने क्या खोया, क्या पाया ? यह एहसास आपने कितनी सहजता से करवा दिया कि जलन, ईर्ष्या, लालच, क्रोध, झूठ……सब व्यर्थ हैं, सच मे उनका कोई अर्थ ही नही।
सच मे आपने पूरी नारी जाति के, पूरे जीवन के साथ घटित होने वाले मनोवैज्ञानिक घटनाक्रमों का बहुत ही मार्मिक और तार्किक विश्लेषण किया है। ईश्वर आपकी लेखनी को इसी तरह धार देता रहे और हम हमेशा आपको पढ़ते सुनते रहें, बस यही कामना है।”
मेरी इस प्रतिक्रिया पर कितने भोलेपन से उन्होंने लिखा –
“अब हुई न कोई बात
बहुत अच्छा लिखा है।
मुझे लग रहा था कि कहीं यह रचना नकारात्मक तो नहीं हो रही है। पर अब ठीक लग रहा है।
खुश रहो।
बहुत सारा प्यार”
उनका प्यार मेरे साथ हमेशा रहेगा बस…..
👆🏿उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्री के साथ डॉ. स्वर्ण ज्योति जी।
उनकी कुछ रचनाओं पर मैंने जो भी थोड़ा बहुत उन्हें लिखकर भेजा था उसे भी संस्मरण में लाकर अच्छा लग रहा है क्योंकि वे भी तो यही चाहती थीं कि उनकी बात ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक जाए।
दुर्भाग्य ही है उनसे रूबरू तो नहीं मिल पाई लेकिन उनके साथ बीते क्षण अविस्मरणीय है और अंतिम साँसों तक जीवंत रहेंगे।
16 अक्टूबर को ही आखिरी बार वे बोली हैं और अगले दिन ICU में चली गईं, कैसा ईश्वर का चमत्कार रहा कि कमल जी और उनके मित्र प्रेम तन्मय जी उसी दिन उनसे मिलने चले गए, मौसम के ख़राब होने के बावजूद। एक दिन भी न जाते तो शायद फिर मिल न पाते उनसें। कौन मानेगा कि वो इतनी जल्दी चली जाएंगी।
कोई रिश्ता न होते हुए भी उनसे मेरा बहुत गहरा रिश्ता था और जब से उनकी बीमारी का पता चला था, तब से तो मुझे वे एक बच्चे की तरह लगती थीं, कुछ भी, कभी भी वे कहती थीं तो चाहे मैं कहीं भी व्यस्त रहती थी, फिर भी करती थी, जैसा वो चाहें!
कमल राजपूत जी को आखिरी दिन उन्होंने व्हाट्सएप्प पर जो लिखकर भेजा, वह तो बहुत ही महत्वपूर्ण है, साहित्य का प्रयोजन है, साहित्य की परिभाषा है, अगर कोई समझे तो!
ये कैसा खेल है जो नियति खेलती है। सब अचानक खत्म हो गया, 16 अक्टूबर कितना अजीब दिन है जब सुबह उनकी कॉल मुझे आई थी, जिसमें पहली बार वे मेरे आगे रोईं थीं, मैं भी अपने को नही रोक पाई, और हम रोते रहे काफी देर….. लेकिन फिर मैंने खुद को संभाला और उनसे उनके लेखन की बात करने लगी, वे ऑक्सिजन सपोर्ट पर थीं इसलिए बहुत ज़्यादा बोल नही पा रही थी। मैंने कहा,
“आंटी आपके साहित्यकार मित्र आपसे मिलने आएं तो आपको कैसा लगेगा ?” इस पर बिल्कुल तड़प कर वे बोली थीं,
“भावना सबको भेजो, कहो उनसे कि आएं, मैं मिलना चाहती हूं।”
मैंने कमल किशोर राजपूत जी से जब भावुक होकर स्वर्णा जी की स्थिति बताई तो वे तुरंत ही मिलने जा पहुंचे। उनसे मिलकर वे खुश हुई थी, मुस्कुराईं थी, और मुझे मैसेज किया कि “कमल भाई का आना बहुत अच्छा लगा।” उस दिन शायद वे आखिरी बार हंसी थीं, आखिरी बार कविता पढ़ी थी, आखिरी बार अपनी ज़िंदगी को पूरी तरह जी रहीं थीं।
👆🏿कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार स्व.शतायु श्री वेंकट सुबैया जी के साथ डॉ. स्वर्ण ज्योति जी।
अजब ग़ज़ब मुलाकात थी वो!
मैं कमल राजपूत जी की जीवन भर आभारी रहूंगी कि मेरे एक फोन करने पर वे 2 घंटे के अंदर उनसे मिलने चले गए, जबकि उस दिन बंगलुरू में मौसम बहूत खराब था। एक संवेदनशील हृदय ही दूसरे हृदय की संवेदनशीलता को महसूस कर सकता है।
गुस्सा आ रहा है कि जब उनको इतनी जल्दी भगवान ने छीन लेना था तो मुझसे क्यों मिलवाया था ? मैं तो इतनी दूर बैठी थी, क्या ज़रूरत पड़ गयी थी भगवान को उनके साथ मेरा इतना गहरा रिश्ता बना कर फिर उनको मेरे से इतना दूर कर देने की। पर मैं दिल से उनसे कभी दूर हो ही नही सकती।
पता नही किससे मिलने की इतनी हड़बड़ थी उनको कि इतनी जल्दी चली गईं। पर जो कुछ वे दे गई हैं, उसे हमें सहेजना होगा, हमारे लिए वह किसी धरोहर से कम नही। अपना व्हाट्सएप्प जब खोलती हूं तो आंखें भीग जाती हैं। हम घंटो चैट करते थे या फोन पर बात। उनसे अरविंदो, मदर, विवेकानंद, अक्का महादेवी, तिरुवल्लुवर…… न जाने किस किस विषय पर हमने खूब विस्तृत चर्चा की। मैं हमेशा उनके साथ बिताए अपने पल, उनकी बातें जो सभी के लिए ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायक है, उन्हें प्रकाशित करती रहूंगी।
……आपको एक मां, एक गुरु, एक दोस्त…..किस किस रूप में याद करूं, नमन करूँ और अपने अश्रुओ की श्रद्धांजलि अर्पित करूँ।
सादर नमन।
स्वर्ण ज्योतिजी एक साहित्यिक मुस्कान को अलविदा कैसे कहूँ? भाई मानती थी, हृदय से अभिव्यक्त करती थी, सरलता और स्नेह की जीती जागती तस्वीर थी वो, माँ सरस्वती की अद्भुत कृति, उन्हीं में समा गईं🙇✍️🙇
विनम्र हार्दिक श्रद्धांजलि ॐ शांति🪷💐🙇